अरसे से दादी के यहाँ जाना नहीं हो पाया |इस बार दादी ने आग्रह कर हमे गाँव बुलाया| गाँव की ताजी मीठी हवा हमेशा मुझे अपने आगोश में बाँध लेती है| मुझे अफसोस रहा कि इतने दिनो मैं कैसे अपने को मिट्टी के इस सौंधेपन से अलग रख पायी?
दादी का निश्छल स्नेह मुझे भिगोता रहा|मैंने निश्चय किया कि साल में एक दो बार जरूर गाँव के चक्कर लगा लिया करुँगी|
दूसरे दिन तड़के ही मेरी आँख खुल गयी|मुझे देख कर आश्चर्य हुआ कि शहर में लगभग लुप्त हो चुकी गोरैया यहाँ बहुतायत में बैठी थी| दादी के बिखेरे पके चावल चुगती और पास बह रही नदी का मीठा पानी पीती| गोरैया!!! ये दृश्य तो मेरे लिए दुर्लभ हो चला था|
“दादी,आप तो चावल के दाने डालती थी|फिर आपने बाजरा डालना शुरु कर दिया| अब ये पके चावल क्यों?”मेरे मन में प्रश्न घुमड़ रहे थे|
“पके चावल चिड़िया को नुकसान पहुँचाते है|वे उन्हें पचा नही पाते|और बाजरे से सुनते उनकी आँखो की रोशनी कमजोर पड़ जाती है| इसलिए अब मैंने पके चावल ही परोसने शुरु किये है|”दादी ने हल्के मन से कहा|
“शहरो में तो गोरैया के दर्शन ही दूर्लभ है और यहाँ देखो कैसे आराम से बैठी दाना चुग रही है|”मेरे स्वर से अफसोस टपक रहा था|
“शहर का प्रदूषण ही तो है, जिसमें इनके अंडे समय से पूर्व फट जाते है|और अविकसित रह जाते है|कुछ पनप जाते है और कुछ दम तोड़ देते है|” दादी ने ये कड़वी सच्चाई मेरे सामने रखी|
मुझे भी लगा कि शहर के दूषित वातावरण ने न केवल गोरैया की प्रजाति विलुप्त की हैं वरन हम मनुष्यो को भी कितनी ही बीमारियों के घेरे में जकड़ लिया है|
समय आ गया है कि हम लोग जागे|
अंजू निगम
इंदौर