गहरा सागर सा,
चंचल लहरों की तरह,
मचलता फिज़ा सा,
बदलता मौसम की तरह,
ठहरता स्निग्ध चांदनी सा,
घुमक्कड़ व्योम की तरह ,
शांत आईने सा
बिखरता गुलाब की तरह,
है ख़ामोश महक सा,
गुनगुनाता नम पलकों की तरह,
अनुबंध किसी से नहीं,
किस परिभाषा में ,
बांध लूं, रे मन ,
तू अनंत धरा आसमां की तरह।
*मधु वैष्णव ‘मान्या’*जोधपुर, राजस्थान