शीर्षक- “शहर पराया हैं”

ये कैसी जहरीले हवाओं में अपना घर बनाया हैं,

सबकुछ वही मगर क्यों लगता ये शहर पराया हैं।

कोई पास आ के भी अपनी जुबां बंद रखता हैं,

कुछ चेहरे नजरअंदाज कर अपना सर छूपाया हैं।

कुछ न गया जिनका क्यों मायूस नजर आते हैं,

आज क्यों बिखरा सा हर शय नजर आया हैं।

आँधियों से न हम डरे  तमाशा बन के रह गये,

अपनों ने बताया इसने बहुत अकड़ दिखाया हैं।

ये दोस्त हवाओं को तौल कर जो बेच देते हैं यहाँ,

सुना हैं कि शहर के लोगों में अब  ये हुनर आया हैं।

मेरे जजबात मेरी मासूमियत  बेचने को देखो अब

मेरे घर में ही सलीके से एक नया बाजार बनाया हैं।

चोट दर चोट जमाने में खाया मेरे दिल ने तो क्या

हिफाजत के लिये दिल को हमने पत्थर बनाया हैं।

संजय श्रीवास्तव

पटना