मैं दिल्ली हूँ!

अब शून्य तक पहुँचकर

मन चुप हो चला है।

क्षितिज अंबर से

बादल नहीं बर्षा है।

धूल-धूल के मैला

जमुना बना है।

पोलूशन से भरा 

अब ये शहर मेरा है।

कुछ तो करो मेहरबानी

जाओ अपने खेतवानी।

ये पग ही तेरा

दुश्मन मेरा है।

लौट जाओ यहाँ से

क्या पाया क्या दिया है?

अंधियारे में हूं मैं

यहाँ तू क्यों छुपा है?

बनारस की सुबह खिली 

दिल्ली की शाम क्या है?

ओझल हो रही 

ये सुबहो शाम क्या है?

भागो ना खुद से

बेचैन मन ये क्यों हैं?

जानता नहीं मुझे जब

यहाँ खेल क्यों है?

मैं हूँ दिल्ली

रहना तुम्हें यहीं है।

गंदगी से भरी हूँ

कहना तुम्हें यहीं है।

जब समय डूबने आएगा

छोड़ जाओगे तुम दिल्ली।

ये दिल्ली मेरी दिल्ली

दिल्ली क्या रह जाएगी?

अभी तो है वक्त

विकास की डली

विनाश के वक्त 

कोई नहीं रहेगा।

जमुना का पानी पी के

मरना पड़ेगा जी-जी के।

सीना धुआँ भरेगा

मन विचलित ही रहेगा।

उठा लो अपनी छाया

तुम अपना ना पराया।

मैं ऐसे ही जीऊँगी

काली बदली सी घिरूँगी।

तुम हो बनारस मैं हूँ दिल्ली।।

नीतू झा 

नई दिल्ली