शून्य से शुरू हुई ,ये सोच जा पहुँची अनंत
उद्वेलित हो मन तरंगें, ढूँढ़ती है उसका अंत।
सोच थी जो बूँद नन्ही ,आज सागर बन गई
कलुषित हृदय को भी, अब साफ देखो कर गई।
सोच के सागर में देखो, रत्न कितने है भरे
इस अनंत भंडार में, झोली लिए हम भी खड़े।
राह बस दिख जाए तो, मान फिर हमको मिले
मन की इस बगिया में, भी फूल सुंदर से खिले।
बस अपनी सोच का, दायरा अब विस्तृत करें
उस अनंत परमात्मा से, आओ साक्षात्कार करें।
जानते है आत्मा, परमात्मा होते अनंत
एक दूसरे में निहित है, एक दूसरे का अर्थ।
है अनन्त ये जग सारा, इसका ना कोई छोर है
ढूँढता है जिस जगह को, ना उसका कोई ठौर है।
मन जो दौड़ा तेज़ गति से ,पाने को परमात्मा
साथ में अपने लिए, लोभ माया की वो आत्मा।
सोच को तू कर्म से, जोड़ ले पहले ज़रा
लोभ, माया के जाल को, पहले तोड़ ले ज़रा ।
उठती मन तरंगों को, एक नई तुम सोच दो
पाना है उस अनंत को ,तो राह नई खोज लो।
गीता पांडे
अल्मोड़ा,उत्तराखंड।