आज दिवाली है। सब और हर्षोल्लास, जगमग रोशनी, पटाखों की धुम-धडाक। पर उस शोर में भी मैं न जाने कैसे सन्नाटे और अंधेरे की ओर बढ़ी जा रही थी। पूजन करने के बाद पूरा परिवार अपने-अपने कामों में लग गया था। पर मैं जैसे अकेली ही अतीत की गहराई में चली जा रही थी।
सुमन, बेटा कल तू और तेरी भाभी दोनों जाकर दिवाली के कपड़े और सामान ले आना। भैया आज पैसे देकर गया है। यदि तुझे समय हो तो आज ही चली जाना। और हां इस बार ढंग के कपड़े लाना। सब बच्चों का नाप लेकर जाना। बार-बार बदलवाने का झंझट मत रखना। मां से यह सब सुनकर मैं खुशी से चहक उठी। सोचा चलो इसी बहाने भाभी के साथ बाजार घूमना भी हो जाएगा। अकेले मुझे कहीं भी जाना अच्छा नहीं लगता।
ये, मैं मेरे दो बच्चे बस इतना ही बड़ा परिवार इंदौर में है मेरा। गांव में तो सब लोग हैं। पर वहां सिर्फ गर्मी के दिनों में ही जाना हो पाता है।
मेरा घर मम्मी के घर के ठीक सामने ही है। बच्चे छोटे-छोटे थे, और हम दोनों को नौकरी करना जरुरी था। इसलिए मायके के सामने घर लेना उचित लगा। सोचा बच्चों की देखरेख भी हो जाएगी। यह मेरा अपना स्वार्थ था। और यही कारण था, कि मैं अपनी मम्मी पर ज्यादा ही आश्रित हो गई। हमें कभी लगा ही नहीं कि हम लोग भाई बहन हैं।
लगता था, कि मैं भी भैया से छोटा भाई ही हूं। वैसे भी मैंने मायके के सामने रहते हुए बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ। सबसे पहले तो अपना मान-सम्मान और फिर रिश्तों की मिठास। जो मेरे लिए सब कुछ खोने के जैसा था।
मैं यह नहीं कहती कि मैं हर जगह सही थी या हूं पर फिर भी मैं सबसे छोटी हूं, तो क्या मेरी जिद और गलतीयों को माफ करना बड़ों का काम नहीं है। वैसे भी ये बातें तो प्याज़ की तरह है, कि छिलते जाओ और आंसू बहाते जाओ। हमेशा की तरह हम लोग भाभी और मैं तैयार होकर बाजार गई। बच्चों के लिए एक दूसरे की सहमति देते हुए कपड़े खरीदे। घर सजाने के लिए सामान और पूजन के लिए भोग बनाने और प्रसाद का सामान लेकर खुशी-खुशी घर आ गए। रास्ते में सब बातें तय हो गई, कि कल आप जल्दी आ जाना। कल से ही गुजिया, पपड़ी, नमकीन और मीठे पारे बनाने शुरू कर देंगे। यह सब इतना सुकून और शांति भरा लगता था कि, जैसे दुनिया के सबसे ज्यादा सुखी परिवार में से एक हमारा ही है। इन सब बातों में एक अधिकार होता था। इन शब्दों में एक मर्यादा होती थी। एक बहू और बेटी में सामंजस्य की परिभाषा होती थी।
पर आज वह खत्म सा हो गया। रिश्ते, रिश्ते ना रहकर एक बोझ बन गये और बोझ भी कैसा?
अनचाहा। जिसे समाज के डर से बस निभाना है।
भाभी अपने बच्चों के लिए बाजार जाती और मैं अपने बच्चों के लिए। औपचारिकता वंश खरीदी वस्तु को दिखाना पड़ता है। यह सोच कर की कहीं किसी को बुरा ना लगे। अरे जब अपन सब रिश्तो का बोझ उठाये हुए जी रहे हैं, तो इसमें यह बची हुई मर्यादा का क्या मतलब?
बेटी हूं ना तो हक जताना नहीं छोड़ सकती। कई बार मम्मी के घर जाती हूं और यह पूछती हूं कि भाभी दिखाई नहीं दे रही, कहां गई? तब मम्मी धीरे से बोलती अरे वह विनी जिद कर रही थी, तो उसे जिंस दिलाने ले गई। यह शब्द मुझको हजारों कोडो कि मार से ज्यादा तकलीफ देती। फिर मां की गोद में सर रखकर झूठ बोलती, और कहती, अरे हां उन्होंने मुझे बोला तो था,पर मेरा सिर दर्द हो रहा था इसलिए मैंने मना कर दिया। बात छोटी नहीं बहुत छोटी है। भाभी को पूरा अधिकारी है। अपने बच्चों को ले जाने का पर, मेरा भी तो मान रखने का कर्तव्य उनका ही है। मैंने अपने मायके से कभी कुछ लेने का नहीं सोचा।
मेरे पास कम हैं, पर बहुत है और मैं संतुष्ट हूं कि ईश्वर ने मुझे जो दिया वह बहुत दिया। बस यही प्रार्थना है कि ईश्वर मेरे मन से मेरा और मेरे अहम का त्याग करवा दे। आज ना जाने क्यों दिवाली के पटाखों की आवाज मेरे कानों में पिघलता हुआ शीशा डालने जैसी लग रही थी। मन बैचेन था। भाभी अपने बच्चों के लिए दिवाली के पहले ही कपड़े ले आई थी। प्रसाद के लिए भी बहुत कुछ बनाने के बाद मुझे गुजिया बनाने के लिए बुलाया। पर मैं जानती हूं यह बुलाना भी सिर्फ औपचारिक था। पर मैं सब कुछ भूल कर मां के घर गुजिया बेलने चली गई थी। आज मेरी आंखों में आंसू देख कर बेटी,बोली मां क्यों रो रही है? तब मैंने कहा बेटा, मैं तुम्हारे लिए नये कपड़े नहीं ला सकी। सब बच्चों ने नये कपड़े पहने हैं,बस यही सोच कर……।
मेरी बेटी बोली- अरे मां तो क्या हुआ। घर में किसी ने तो नये कपड़े पहने ही है। हमें बाद मैं दिलवा देना। क्या मां तु भी ना।
पर मैं अपने अहम और अधिकार को कैसे त्यागु कैसे।
डॉ. संध्या पुरोहित
ग्रंथपाल, श्री वैष्णव कॉमर्स कॉलेज,
इंदौर