मन का दीप

मन का दीप जलाकर देखो 

कृत्रिम दीप जलाना क्या?

सिसकी निकली अगर कहीं से

यह त्योहार मनाना क्या?

मन में लेकर घोर अँधेरा 

भीतर हो पापों का डेरा।

पत्थर दिल जो कलुष भरा हो 

चहुँ दिशि लोभ,मोह का घेरा।

अंतर्मन का तम ना भागा 

बाहर कहो भगाना क्या?

अगणित दीप जलाया जग नें 

फिर भी कहाँ मिटा अँधेरा?

दुःख की काली रात गई ना 

सुख का आया कहाँ सवेरा?

अपना दीप जलाने खातिर 

क़ोई दीप बुझाना ना।

जग का कोना-कोना जगमग 

होये इतने दीप जलाओ।

जाकर देखो घर-घर विरही 

क़ोई रोता दीप हँसाओ।

सजा सके ना स्वप्न किसी के 

फिर तुम दीप सजाना ना।

वीरेन्द्र कुमार मिश्र ‘विरही’

गोरखपुर,उ0प्र0-

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