फरमाइश और बचपन का,
कितना अनोखा संगम है।
जहां फरमाइश का नाम लिया,
वहां बचपन खुद ब खुद चला आया।
वह बचपन कितना सुंदर था,
जो फरमाइशो के बिना अधूरा था।
हर फरमाइश पूरी होती थी,
सिर्फ रोने के डर से,
जब बिन वजह रो लिया करते थे, और
आज वजह होने पर भी
चुप रहा करते हैं।
कभी पैसे ना हुआ करते थे,
फरमाइश पूरी करने के लिए।
आज पैसे तो खूब है,
लेकिन फरमाइशो ने कई रुख बदल लिया है।
बचपन के उन दिनों में
एक अलग ही नशा था,
एक अलग ही खुमार था,
जो आज की दुनिया में
कई घुम हो गया है।
देखो
फरमाइश और बचपन का कितना अनोखा संगम था।
सुहानी आंचलिया
जावरा, रतलाम (म. प्र.)