परमसत्ता से नहीं
हे! मानव
तुमसे
पूछना चाहती हूं
है कौन सा/
बिंदु/
धरा का
इंसा जहां/
इंसा से मिले।
जहां न मैं हो
हो/तो केवल
मानवीयता/
जहां पर
सुंदर, सरस हो
जीवन/
जहां पर।
परिचय जहां पर
तेरा और मेरा
बस एक हो
अनेक हों चेहरे
भले/पर
दिलों में
न कोई भेद हो।
बुझ गयी हो जहां
लौ/पथ की
हम और तुम
उसे मिलकर/
जला दें/प्रेम का दीपक
दिलों में/
हम जहां सबके जला दें।
टूटती उम्मीदों को
जहां
मिलकर/हम और तुम
बंधा दें
मानवता के बीज को
हम और तुम
जहां मिलकर/
उगा दें।
खंडित होते विश्वास की
उम्मीद को
हम और तुम
जहां मिलकर/
दृढ़ बना दें।।
मान और अपमान का
हो/ना/प्रश्न
जहां पर
प्रेम की धारा बहे
दूर तक/
अविरल जहां पर।
गरल हृदयों का
मिटा दें
प्रेम पुष्प/जहां उनमें/
खिला दें
मुस्कान मीठी, मधुर वाणी
प्रेम की सरिता
बहा दें जहां पर।।
डॉ० दीपा
असिस्टेंट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय