फिरता है मेरे सामने वो यूँ बना-बना
जैसे मालूम नहीं मुझको के वो है अनमना।
कईं दिन से मुझे तूने आवाज़ नहीं दी
हर साज़ लग रहा है बेबस,घुटा-घुटा।
मानो यकीं के राह में यों एक हो गये
निकले थे घर से लेकिन वो-हम जुदा-जुदा।
वो बेपनाह मुहब्बत जो एक लफ़्ज़ है
लगता है तेरे मेरे दरम्यां कहा-कहा।
सुब्ह-सवेरे वो खिड़की पे आ गए
हमने देख लिया इक फूल खिला-खिला।
अस्ल में तो हम ही अकेले सुलग रहे थे
लगता था हमको जैसे सब कुछ जला-जला।
इक नाम वही बेशक़ सहारा सभी का है
किसने किया नहीं है मुश्किल में ख़ुदा-ख़ुदा।
ज़ाकिर हुसैन “अमि”
अध्यक्ष-म.प्र.लेखक संघ
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