कभी हम भी बच्चे थे,हमारा भी बचपन था,आज हमारे बच्चे हैं और उनका बचपन है। संसार का सृष्टि-चक्र ऐसे ही चलता है। हम चाहें तो भी चलता है और न चाहें तो भी चलता है। इस विचार के साथ उलझने और तर्क-वितर्क में समय बरबाद करने की जरूरत नहीं है। सहजता से स्वीकार कर लेने से जीवन सुगम और सरल हो जाता है। जो होना है,वह होकर रहेगा। हमें आँख मिली है, देखने के लिए,मस्तिष्क है, सोचने,समझने और विचार करने के लिए। हम क्या करते हैं? हस्तक्षेप करते हैं,बाधाएं पैदा करते हैं और उस ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति विश्वास नहीं करते। ईश्वर कहीं है तो यहाँ भी है,सर्वत्र है और कण-कण में है। इस तरह सोचने-विचारने और स्वीकार कर लेने से जीवन जीना सरल तो होता ही है,अलग तरह की सुरक्षा,शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती है। तर्क की नहीं, अनुभव करने की जरूरत है। ईश्वर की यही भावना है कि हम सभी एक-दूसरे से मिल-जुलकर रहें और खुश रहें।
लोग कहते हैं,छोटे-छोटे बच्चे अक्सर बड़े बुजुर्गों के पास जाने से कतराते हैं। उनकी अपनी दुनिया होती है,अपनी सोच होती है,अपने-आप में खेलते हैं,मगन और खुश रहते हैं। अत्यन्त छोटे बच्चे अपनी मां के साथ होते हैं। इस तरह सभी अपना समय खुली हवा में व्यतीत करते हैं। अच्छा है,सभी अपने-अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग हैं।
अपने बच्चे को पार्क में,झील,नदी या किसी जलाशय के पास ले जाओ,अपने पूजा-स्थलों पर जाओ। बिना उपदेश के ही तुम्हारे बच्चे बहुत कुछ सीखेंगे। हमें अपना व अपने बच्चों के बौद्धिक विकास की चिन्ता करनी चाहिए। हम करते भी हैं। आज सभी माता-पिता बहुत सक्रिय हैं,सजग हैं और अपने बच्चों के लिए सब कुछ करना चाहते हैं। यहाँ दो या तीन उदाहरण देना चाहता हूँ,शायद अभिभावकों को उससे लाभ मिले।
1-मार्क जुकरबर्ग, स्टीव जोब्स, प्रो० एलपर्ट रामदास जैसी विराट हस्तियों के गुरु नीम करोली बाबा प्रयागराज में अचानक अपने भक्त किसी जज साहब के घर पहुँच गये। उन्होंने कहा,”बच्चे बने बनाये पैकेज की तरह होते हैं, उन्हें मारने-पीटने की जरूरत नहीं है।” दरअसल कुछ देर पूर्व ही उन महाशय ने अपने बच्चे को दण्डित किया था।
2-महर्षि अरविन्द के पिता डाक्टर थे। अंग्रेज अधिकारियों के परिजनों का इलाज करते थे। उनके रहन-सहन से बहुत प्रभावित थे और चाहते थे कि उनके बच्चे बिल्कुल अंग्रेज की तरह बने। उन्होंने सात साल के अरविन्द को इंग्लैण्ड भेज दिया,किसी अंग्रेज के घर में रखा और सख्त हिदायत थी कि किसी भी भारतीय के सम्पर्क में ये न आने पायें। पुत्र विछोह से अरविन्द की मां विक्षिप्त हुईं और मर गयीं। अरविन्द जब वापस लौटे तो विशुद्ध भारतीय बनकर लौटे। भारत भूमि पर चरण रखने के पूर्व उन्होंने अंग्रेजी लिबास त्याग दिया और भारतीय वस्त्र धोती-कुर्ता पहन लिया।
3-चीन के बहुत बड़े चिन्तक,साहित्यकार हुए लुशून। भारत में प्रेमचंद और रुस में गोर्की के समकालीन थे। लुशून जब छोटे थे तो पिता के लिए वैद्य के यहाँ से दवा की पुड़िया ले आते थे। पिता गुजर गये। लुशून के बाल-मन में यह बात बैठ गयी कि पिता का सही इलाज नहीं हुआ। मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए लुशून जापान गये। वहाँ किसी दिन हास्टल में कोई फिल्म दिखाई गयी जिसमें दुबले-पतले जापानी सैनिक मोटे-ताजे चीनियों को पीट रहे थे। लुशून का मन विचलित हुआ। उन्होंने सोचा कि इन्हीं लोगों के शरीर की रक्षा के लिए जीवन लगाऊँगा। उन दिनों लुशून कविता लिखना शुरु कर चुके थे। उन्होंने जापान के प्रबुद्ध,साहित्यिक लोगों के बीच अपनी चिन्ता जाहिर की। लोगों ने कहा,मनुष्य के बौद्धिक विकास के लिए साहित्य सबसे आवश्यक है। उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी,चीन वापस आ गये। चीन की क्रान्ति का परवर्ती काल था। उन्होंने चीन के पुनर्निर्माण के लिए विपुल साहित्य लिखा।
भारत में रविन्द्र नाथ टैगोर के शान्ति निकेतन के पीछे का उद्देश्य ऐसा ही कुछ रहा है। हमारी अपनी प्राचीन शिक्षण व्यवस्था को गुलामी के काल में ध्वस्त किया गया और जो शिक्षा-व्यवस्था लागू की गयी, उससे बौद्धिक और व्यक्तित्व विकास सम्भव नहीं है। हमें अपने बच्चों के लिए इस दिशा में चिन्तन और प्रयास करना चाहिए। मत,मजहब कोई भी रखो परन्तु अपना और अपने बच्चों के व्यक्तित्व-विकास के लिए बेहतर प्रणाली की खोज करो।
प्रसन्नता होती है, जब छोटे-छोटे बच्चे मेरे पास आते है। आप उनकी सुनो,उनपर ध्यान दो। वे बहुत कुछ कहते हैं,बहुत कुछ कहना चाहते हैं। हम सुनते नहीं। आप अपनी सोच और बच्चे की सोच के बीच थोड़ा स्पेस,खाली जगह रखो,स्वयं को लचीला बनाओ। जिनके रिश्तों में स्पेस नहीं होता,वे टूट जाते हैं। बच्चे आते हैं, मेरे साथ सोफे पर बैठते हैं,खुश होते हैं और अपनी-अपनी बातें सुनाते हैं। मैं उनकी उम्र और रुचि के हिसाब से उपदेश दिया करता हूँ। सभी बहुत ध्यान से सुनते हैं। किसी दिन मैंने कहा,”आप सभी बच्चे,अपने घर में माता-पिता को कह दो,हम अच्छा काम करेंगे,अपनी चिन्ता भी करेंगे। आप को कुछ कमी दिखे तो बताइये,हम सुधार करेंगे।” बच्चे बहुत उत्साहित होते हैं। मुझे बहुत खुशी होती है। ये सभी बच्चे ईश्वर का ही स्वरुप हैं ।
हमारे बचपन में जो कमियां थीं,हमारे बच्चों के जीवन में न हो। उन्हें सीखने दो,दुनिया और रिश्तों को समझने दो। उनके जीवन में ईश्वर और प्रार्थनाएं शामिल करो। घर का वातावरण बनाओ और स्वयं विश्वास करो। जो तुम्हें पसंद हो,कोई धार्मिक/आध्यात्मिक पत्रिका हर महीने घर में मंगाओ। किसी को पढ़ने के लिए दबाव मत दो। गुण या दुर्गुण हम वही सीखते हैं जो हमारे जीवन में,आसपास सहज सुलभ होते हैं। ध्यान रखो,बच्चे शीघ्र प्रभावित होते है। उन्हें गुणों से परिचित होने दो। करुणा,दया,प्रेम,सहानुभूति,त्याग जिसके जीवन में उतर आया,उसे महान बनने से कोई रोक नहीं सकता। संभव हो तो अधिक से अधिक बच्चों को यह लेख पढ़ाओ और उन्हें मेरे नाम पत्र लिखने को कहो। यदि किसी को किसी भी रुप में मेरे सहयोग की आवश्यकता महसूस हो तो निःसंकोच कहें,मुझे खुशी होगी।
विजय कुमार तिवारी
(कवि, लेखक, समीक्षक, कहानीकार, उपन्यासकार)
भुवनेश्वर,उड़ीसा मो०-910293919