मेरा मानना है कि
अनुभूतियों को आत्मसात करने की प्रक्रिया
सहज तो बिलकुल नहीं होती
बल्कि बेहद दुरूह होती है
जटिल भी होती है
और हाँ उससे भी कठिन हो जाता है
उसकी अभिव्यक्ति को शब्द देना
उसे कविता की शक्ल देना
कहने का आशय यह कि
नग्न यथार्थ को परोसना, वह भी
हूबहू नहीं बल्कि एक आवरण ओढ़े हुए
पर ऐसा होते ही स्वयंमेव
एक अहम सा सवाल
इससे खुद बखुद जुड़ जाता है
आप पूछ सकते हैं वो सवाल क्या है
सवाल बड़ा सीधा सा है
आखिर आवरण की ज़रुरत ही क्योँ ?
यथार्थ को हूबहू क्यों नहीं ?
इसमे हर्ज़ ही क्या है!
इसमें बुराई क्या है!
क्या अन्तर्मन में उठने वाले सवालों को
अंदर की अव्यक्त वेदना को
उबलते हुए आक्रोश को
दहकती संवेदना को
लहू-लुहान मन के भावों को
यथावत परोस देने से
कवि कर्म प्रभावित होता है
आरोप प्रत्यारोप की बात हो सकती है
बेशक़,मेरा कवि कर्म तो बिलकुल ही
प्रभावित नहीं होता है
हाँ कुछ लोगों का ज़रुर होता है
जो सब कुछ एक आवरण रख कर
कहना/लिखना चाहते हैं
आखिर ऐसा क्यों?
इन्हें इस बात का डर होता है कि
शायद इन्हें किसी वाद विशेष का पक्का
हिमायती घोषित कर दिया जायेगा
और फिर इसके परिणामत:
बात और व्यवहार बदल सकता है
जो नफा नुकसान में बदल सकता है
जिसकी संभावना कुछ ज्यादा ही रहती है
मेरे दोस्त यार मुझे भी मध्यममार्गी
बनने की सलाह दिया करते हैं
इसके अनेक फायदे गिनाते हैं
पर मेरे कवि मन ने मेरे कवि कर्म को
सख्त हिदायत दे रखी है
जो कुछ कहना है
वगैर लाग लपेट के कह दिया करो
तुम्हारा यही कर्म है/तुम्हारा यही धर्म है
बस इतना ही याद रखना।
राजेश कुमार सिन्हा
बान्द्रा(वेस्ट),मुंबई-50