क्या लिखूं

सोचती हूं क्या लिखूं

मौन की अभिव्यक्ति,

या वेदना का सार

या फिर इस कुंठित समाज

की दयनिय सोच ,

सिसकती हुई आहें ।

एक बंद पिंजरे की कैद

से आज़ाद होने की

झटपटाहट या उन स्वपनो को

जो पूर्ण होने को हैं आतुर

उस मानसिक तनाव को ,

जो युगांतर से ओढ़े हुए हैं

अपनी बेबसी और लाचारी

शूल से चुभते उन नश्तरों को

प्रतिक्षण आघात करतें हैं

नारी सम्मान पर ।

रस्मों की  वेदी पर दहकती

हुई अग्नि की भेंट चढ़ती

अबलाओं की सिसकियाँ

या उस पितृसत्तात्मक सोच

जो व्याप्त है रगों में ।

या कालजयी वेदनायों का सार ,

कुप्रथायों की बेड़ियों में बंधीं

अनंत आशायें जो निर्भीकता से श्वास लेने को हैं शेष ।

रश्मि वत्स

मेरठ(उत्तर प्रदेश)