नाम लंबा
लुभावना
मगर
दशा जमूरे जैसी ।
निहंग, मलंग, चूसे आम के माफिक ।।
मंत्री-संतरी ठहरे आला दर्जे के मदारी
ड़मरू बजाना उनका प्रिय शगल है
और
कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका
सब हैं इच्छाधारी दर्शक ।
जो बीच-बीच में
शोर मचाते हैं
ध्यान आकृष्ट कराते हैं
कभी-कभार सिक्के भी उछालते हैं ।।
जिनकी आंखों पर
गांधारी पट्टी,
अधरों पर शकुनी मुस्कान होता है ।।
जमूरे की किस्मत ससुरी जुआरी है,
उसके अच्छे दिन की उम्मीद अब भी कुंवारी है ।
आवाम को मयस्सर तरकारी है,
निजाम के घर काजू फ्राई की तैयारी है ।
हाकिमों के हाथ में चमचमाता एप्पल है,
भूखी जनता के पैर में पैबंद वाला चप्पल है ।
लोक के घर आंसू का समंदर है,
तंत्र के घर जूठन से भरा कनस्तर है ।
प्रजा के घर पानी का नल नहीं
और साहब बहादुरों के पास इसका हल नहीं !!
माफ करना, ये सारे आंकड़े गैर सरकारी हैं ।
जबकि सारी की सारी सरकारें हितकारी हैं ?
जम्हूरियत आवाम के संग धोखा है
अथवा
एक बुर्का है हिटलरशाही का ??
मनीष सिंह “वंदन”
आई टाइप, आदित्यपुर