शब्बीर हसन खान, जो जोश मलिहाबादी के नाम से लोकप्रिय हैं। उनका जन्म 5 दिसंबर, 1898 (लखनऊ से 13 मील), संयुक्त राज्य, ब्रिटिश भारत में, अफरीदी पठान वंश के एक उर्दू भाषी मुस्लिम परिवार में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी में घर पर ही प्राप्त की। सेंट पीटर्स कॉलेज, आगरा में उच्च शिक्षा प्राप्त की और 1914 में कैम्ब्रिज सीनियर परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने 1918 में शांति निकेतन में टैगोर विश्वविद्यालय में छह महीने बिताए। 1916 में उनके पिता बशीर अहमद खान की मृत्यु ने उन्हें कॉलेज की शिक्षा प्राप्त करने से रोक दिया।
जोश मलिहाबादी जिन्हें क्रांति के कवि के रूप में ब्रिटिश भारत के सर्वश्रेष्ठ उर्दू कवियों में से एक माना जाता है। अपने उदार मूल्यों और चुनौतीपूर्ण स्थापित व्यवस्था के लिए भी जाने जाते हैं, उन्होंने अपने जीवनकाल में 100,000 से अधिक कविताएँ और 1,000 से अधिक रूबाइयात लिखीं। उनकी लिखी गई यादों की बारात, उनकी आत्मकथाएँ जो उनकी सरल शैली के लिए जानी जाती हैं। उन्हें भारत के पहले प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू और अक्सर लाला किशन लाल कालरा के यूनाइटेड कॉफी हाउस में होने वाले मुशयरे में भाग लिया जहाँ जोश ने दर्शकों के दिलों को अपनी शायरी से रोशन किया।
वास्तव में, उनके परदादा, नवाब फकीर मुहम्मद खान ‘‘गोया‘‘, दादा नवाब मुहम्मद अहमद खान, चाचा अमीर अहमद खान और पिता बशीर अहमद खान सभी कवि थे जिनके नाम के साथ कई कार्यों (कविता संग्रह, अनुवाद और निबंध) थे। । एक अन्य रिश्तेदार अब्दुल रज्जाक मलीहाबादी थे, जो एक पत्रकार, विद्वान और अबुल कलाम आजाद के विश्वासपात्र थे।
1925 में, जोश ने हैदराबाद में उस्मानिया विश्वविद्यालय में अनुवाद कार्य की देखरेख शुरू की। हालाँकि, वहाँ उनका प्रवास उस समय समाप्त हो गया जब उन्हें तत्कालीन सत्तारूढ़ हैदराबाद के निज़ाम के खिलाफ एक कविता लिखने के लिए निर्वासित कर दिया गया।
इसके तुरंत बाद, उन्होंने मैगज़ीन कलीम (उर्दू में शाब्दिक रूप से ‘‘मुकर्रिर‘‘) की स्थापना की, जिसमें उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के पक्ष में लेख लिखे। उनकी कविता ‘‘हुसैन और इन्क़लाब‘‘ने उन्हें ‘‘शायर इन्क़लाब‘‘की उपाधि दी। तब से, वे स्वतंत्रता के संघर्ष में अधिक सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं। 1947 में भारत में ब्रिटिश शासन खतम हाने के बाद, जोश प्रकाशन ‘‘आजकल‘‘ संपादक बन गए।
इसके अलावा, जोश की पोती फरुख जमाल मलिहाबादी की पोती तबस्सुम अखलाक ने भी अपनी कविता का संभाला है। मशहूर कलाकार फहीम हामिद अली जोश की अनूठी और आधुनिक प्रस्तुति पर काम कर रहे हैं।
जोश एक उच्च सम्मानित उर्दू कवि थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन उर्दू की सेवा में समर्पित कर दिया। जोश के प्रशंसकों की सूची काफी लंबी और लगभग 100 साल तक फैली हुई है। अफसोस है कि जिस उर्दू के लिए जोश ने अपनी सारी जिन्दगी लगा दी आज उसी उर्दू चिराग बुझता दिख रहा है। और यह अफ़सोस की बात है कि इस दीप को जलाए रखने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है। और अगर उर्दू के नाम पर कोई कदम उठाया जा रहा है, तो यह केवल कविता और ग़ज़ल सभाओं की व्यवस्था करके और कुछ लेखों को अखबार में छापकर किया जा रहा है। . जिसकी कोई जमीनी हकीकत नहीं है।
आज उर्दू के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है। और जमीनी स्तर पर उर्दू का विकास तभी होगा जब बच्चों को उर्दू सिखाई जाएगी। क्योंकि अगर बच्चों को उर्दू पढ़ाएंगे तभी उर्दू भाषा बाक़ी रहेगी। और अगर बच्चों को उर्दू नहीं पढ़ाएंगे तो उर्दू का नाम लेने वाला कोई नहीं बचेगा।
आज उर्दू अखबारों, रिसालों और पत्रिकाओं के बारे में आप सभी जानते हैं। इसका कारण यह है कि सरकारी सहायता पूरी तरह से समाप्त कर दी गई है। आप अच्छी तरह से जानते हैं कि एक साधारण कॉपी (नोटबुक) की सामान्य कीमत 20 से 25 रुपये है लेकिन उर्दू अखबार 2 से 3 है, फिर भी कोई खरीदार नहीं रहा है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कितने लोग उर्दू पढ़ने वाले हैं.
हमें उर्दू के इन दिग्गज सिपाहियों के प्रयासों को सफलता के शिखर तक ले जाने की जरूरत है। उर्दू के प्रचार के लिए मकतब, मदरसों और विशेषकर स्कूलों में बच्चों को उर्दू पढ़ाया जाना चाहिए। उर्दू के विकास के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए ताकि उर्दू का प्रचार-प्रसार किया जा सके। उर्दू को बढ़ावा देने के लिए सभी सरकारी और गैर-सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में उर्दू विभाग शुरू करने के लिए भी आवाज उठाने की जरूरत है।
इस संबंध में अपनी भूमिका निभाते हुए, उर्दू के एक निडर और साहसी सिपाही जोश मलिहाबादी ने अंततः 22 फरवरी, 1982 को इस फानी दुनिया को छोड़ कर दुनिया-ए-बाकी की तरफ चल बसे।
बे-नजीर अन्सार एजुकेशनल एण्ड सोशल वेल्फेयर सोसाइटी
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