खोई नजर

आसान नहीं होता

झील सी खोई

नजर को पढ़ लेना,

जो ना झपकती है

ना सरकती है,

एक टक तकती है,

अपने ही भीतर चल रहे

किन्ही नजारों को,

क्या चलता है उनमें?

वो जो दिखती है शांत।

झील से ठहराव में 

कहीं तो,

छुपा रहता है,

ज़िंदगी की भागती

कश्मकश का ज्वार,

अनंत सागर सी

कईं आशाएं और

किनारा जोहती लहरें।

इंतजार के मोती भी तो

छुपा रखती हैं वो,

कि कोई तो आए

और समझ की 

पतवार लिए पहुंचा दे

उन्हें किनारे तक।

किंतु कौन आए वहां?

क्योंकि आसान नहीं होता

झील सी खोई

नज़र को पढ़ लेना।

ऋद्धिका आचार्य।

बीकानेर।