जड़ से उखड़े

फ्लैट की बालकनी से  गिरिजा जी देख रहीं थीं,सामने मैदान में बड़े बड़े पेड़ों को जड़ समेत ज़मीन से निकाला जा रहा था।उनका मन अनमना सा हो गया।

उनके गृह-नगर से, इस महानगर में,बेटा उन्हें और पिता को अपने पास ले आया था।कारण वही, उम्र का अंतिम  पड़ाव।यूँ तो बुढ़ापा स्वयं में ही एक बीमारी है, पर जहाँ पति-पत्नी दोनों ही अनेक शारीरिक व्याधियों से घिरे हों तो बेटे का चिंता करना स्वाभाविक है।कैसे अकेला छोड़ दे माँ- पिता को।

जिस घर में उम्र का लम्बा समय बीता,घर की एक एक ईंट उनके सुख-दुख में सहभागी रही,अब आखिरी  समय में उस घर को अकेला छोड़ कर आना पड़ा ।

वापिस लौटने की सारी सम्भावनायें ताले में ठोक दी गईं। 

सब सुख है यहाँ,बेटे-बहू का प्यार, सम्मान, सेवा, सब है।पर फिर भी—–,मन और शरीर जुड़ ही नहीं पा रहे यहाँ ।बच्चों की व्यस्त दिनचर्या,उनके खान-पान,सुसाइटी,महानगर की हलचल, सबसे सामंजस्य बिठाना मुश्किल हो रहा है।पूरा एक माह हो गया यहाँ आये ।”क्या सोच रही हो माँ?”अचानक बेटे ने आकर उनकी विचार तंद्रा भग्न की।

“कुछ नहीं बेटा।देखो,सामने मैदान में कितने पुराने पेड़ लगे थे।लगता है यहाँ कोई उँची इमारत बनाने के लिये सब उखाड़े जा रहें है।””माँ , इन पेड़ो को किसी दूसरी जगह लगाया जायेगा।”

“अपनी ज़मीन से अलग हो ये कहीं और फिर लग जायेंगे?ऐसे ही हरे भरे हो जायेंगे?”गिरिजा जी ने प्रश्न किया।

“बिल्कुल ,हाँ–कुछ समय ज़रूर लग सकता है इन्हे, दूसरी ज़मीन पर जमने में ,हवा,पानी के साथ  सामन्जस्य बिठाने में।–पर,धीरे-धीरे ये फिर हरे भरे हो जायेंगे माँ।”

सुनीता मिश्रा भोपाल