निकल कर गांव से अपने
शहर तक आ गए हैं हम,
सुकूं और चैन खोकर
गांव का पछता गए हैं हम,
बडी हसरत थी चाहत का
नया संसार देखेंगे,
बनाबट की मगर अब
रोशनी को पा गए हैं हम,
बिखर कर रह गए सपने
हमारी ज़िन्दगानी के,
उडे़ थे आश्मां में अब
जमीं पर आ गए हैं हम,
बडी हसरत थी सागर की
कभी गहराई नापेंगे,
मगर टकराके लहरों से
किनारे आ गए हैं हम,
तमन्ना थी कि जीवन में
चमन के फूल पा लेंगे,
मगर दामन में काटों का
ज़खीरा पा गए हैं हम,
‘सजल’ थी चाह जीवन में
बहुत उल्फ़त मिलेगी पर,
मिली नफ़रत बहुत अपनों से
धोखा खा गए हैं हम,
मंजु कट्टा ‘सजल’
मेड़ता सिटी नागौर-राजस्थान