काटो से घर सजाने लगे

ऐ ज़िन्दगी तेरे ज़ख्मों की,

तादाद यूँ बढ़ गयी है अब। 

मरहम भी काम नहीं आता,

नमक उन पर लगाने लगे हैं। 

तेरा दामन छलनी है इस क़दर, 

कि सुराख़ छिपाने कि ख़ातिर,

अब बूटे काढ़ना छोड़ दिया,

हम टाट के पाबंद लगाने लगे हैं। 

हालातों के थपेड़ों ने सुखा दिया, 

इस तरह आँखों का पानी।

इक आँसू भी बाहर 

नहीं निकलता,

हम हँस कर दर्द बताने लगे हैं। 

फूलों की खुशबू ने दे दिया, 

ऐसा फरेब ऐतबार को कि 

अब चमन रास नहीं आता,

हम काँटों से घर सजाने लगे हैं।

दीप्ति खुराना,वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका,

मुरादाबाद-उत्तर प्रदेश