“धरती की बेटी”

आज मां की बरसी थी। मां को गए आज पूरा एक वर्ष हो गया। सारे रीति रिवाज अनुसार कार्य संपन्न कर हम लोग करीब शाम के छः बजे तक फ्री हो गए। तभी सरिता, मेरी पत्नी ने मुझे आवाज देकर मां के कमरे में बुलाया। वहां जाकर देखा सरिता के हाथों में एक बहुत पुरानी कॉपी थी। जिसके पन्नों की हालत भी हमारी सोच की तरह बत्तर थी। मैं जब उसके पास पहुंचा, तो देखा कि उसके आंसुओं से पन्ने गीले हो रहे थे। मैंने बिना पल गंवाए, वह कॉपी लेकर पढ़ना शुरू किया।

 मां ने लिखा है इसलिए नहीं, सरिता जो बेहद सख्त दिलो-दिमाग की थी, जिसकी मां के साथ शायद ही किसी पल बनी हो। वह आज अपने कीमती आंसू उन सड़े गले पन्नों की लिखावट के लिए बहा रही है, तो जरूर कुछ ईश्वरीय चमत्कार होगा। 

पहले के पन्नों में तो मां के जीवन की वह घटनाएं बेहद नपे तुले शब्दों में लिखी थी, जिनके बारे में हम भी नहीं जानते थे। जानते भी कैसे। जब भी मां हमें कुछ बताने लगती, हम अपने ही शब्दों और मांगो के जंगल खड़े कर दिया करते थे। मां चुप होकर उन जंगलों से कांटो को हटाने का प्रयास करने में जुट जाती।

 पर आज पता चला कि मां की शादी उनसे कई गुना बड़े उम्र वाले और पहले से दो बच्चों के पिता के साथ कर दी गई थी।

 शादी के बाद आठ वर्ष में दो बच्चों की मां बन विधवा भी हो गई थी। उस समय मां की उम्र बीस इक्कीस वर्ष की रही होगी। इतनी कम उम्र में जैसे उन्होंने सारी दुनिया के सुख और दुखों को अच्छे से अपने में समा लिया हो।

 मेरी मां बहुत ही सुंदर थी उनके बाल तो अंतिम समय तक भी शानदार थे। गोरी चिट्टी,दुबली पतली बिल्कुल अंग्रेजन लगती थी। उस समय तो मां और भी सुंदर होगी जब वह जवान थी। खैर यह तो उनके बाहरी रूप रंग की तुलना थी।

 पापा के चले जाने के बाद मां के कंधों पर चार बच्चों की जिम्मेदारी आ गई। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

 मां उस जमाने की पांचवी फेल पढ़ी-लिखी महिला थी। बस उनको इसी का फायदा मिला और उनके थोड़े से भी प्रयास से उनको ग्राम सेविका की नौकरी मिल गई। ग्राम सेविका बनने के बाद उनको ऐसे गांव में भेजा गया जहां और कोई जाने को तैयार नहीं था, पर मां के कंधों पर हमारा भार जो था। वह भी ऐसा जिसका भार उनको फूलों सा महका देता था। एक बात और थी मां के व्यक्तित्व में कि उन्होंने हमको कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि हम दो भाई बहन है। उनके लिए हम चार थे और यही सच भी था है और अब तो और सत्य रहेगा।

 वह हम चारों भाई बहन को मामा के यहां छोड़ छोड़ कर नौकरी करती रही। जैसे तैसे समय निकलता गया हम लोग पढ़ाई पूरी कर अपनी-अपनी कमाई में व्यस्त हो गए। अभी तक मैंने मां की कॉपी के चार पन्ने ही पड़े थे, कि मेरे बदन में सिहरन उठने लगी। जिस मां को हम जीते जी न जाने क्या-क्या बोल के पत्थरों से लहूलुहान करते रहे, आज पता चला हमारी सफलता के लिए उस महिला ने कितने कांटो के रास्तों को पार किया होगा। उनकी कॉपी के पन्नों की कहानी अब उन्हीं की जुबानी तो नहीं सुना सकता पर पढ़कर उस महिला को अपने और परायों ने कितना छलनी किया यह जरूर महसूस करा सकता हूं। उन लोगों में मैं भी शामिल हूं।

आज राणा साहब जी ने मेरी तनखा मैं से बाराह रूपए की कटौती कर ली। कटौती जायज होती तो मुझे यह लिखना नहीं पड़ता। पर वह जो चाहते हैं वह मैं नहीं कर सकती। नहीं कर सकती अपने जमीर का सौदा और शायद मेरी इसी ना की क़ीमत थी वो कटौती।

उनके लिए यह बहुत छोटी रकम थी पर मेरे लिए तो मेरा खजाना था। अब इन रूपयों की भरपाई जब तक मैं अतिरिक्त काम कर करके नहीं कर लेती तब तक मुझे चैन नहीं मिलेगा। भैया को भी तो बच्चों के रखरखाव के रुपए भेजना है। उसमें यदि जरा भी कटौती या कम होती तो भाभी का चेहरा सामने आ जाता।

 मैं फिर भी उनकी दिल से शुक्रगुजार हूं कि वह मेरे बच्चों को अपने घर पर रख रहे हैं।

 आज मैं बहुत खुश हूं।  इतनी की शायद मैं अपने जीवन में कभी नहीं हुई होंगी। कारण आज मेरा तबादला मेरे गांव में कर दिया गया और मेरी मेहनत व ईमानदारी का फल मुझे पदोन्नति देकर दिया। अब मैं अपने बच्चों का बचपना देख सकूंगी। अब उनको अपने सीने से लगाकर उनकी मां बन सकूंगी। इन आंखों की जमीन में किसी कोने में दुबक गए हैं जो सपने, उनको हकीकत की धरा से रौप सकूंगी।

 यह करूंगी, वह करूंगी क्या करना है, यह सोच कर खुश होती रही।

 अपने गांव आए पूरा एक महीना हो गया। भैया भाभी के साथ ही रह रही हूं। जो सपने मेरी आंखों की जमीन के किसी कोने में थे वह हकीकत की धरा से कोसों दूर होते गए। यहां आने पर महसूस हुआ कि बच्चे तो बचपना कब का जी चुके। समय के पहले ही बड़े कर दिए गए। उनकी बचपन की उपजाऊ जमीन को बुराई के बीजों से सींचा गया। फसल लहलहा उठी, पर वह आग की फसल थी। मेरे बच्चों के दिमाग में मेरे ही प्रति जहर पिलाया गया।

 उनके हिसाब से मैं अपनी आजादी के कारण उनको अपने साथ नहीं रखती। मुझे ऐशो आराम चाहिए, इसलिए इनको दूर रख रखा है। 

आज छोटे, मां मुझे छोटा बुलाती थी, ने मुझसे बहुत गलत व्यवहार किया। मन बहुत दुखी है, पर खैर चलो थोड़ा समय साथ रहेगा, तो मेरी मजबूरी समझेगा।  

 आज मेरे लिए सारा संसार मिलने जैसा खुशी भरा दिन था। भैया के घर के सामने ही मैंने घर खरीद लिया। यह सोच कर कि मेरा सारा संसार तो यही बसा है। पर भविष्य में यही मेरी सबसे बड़ी भूल साबित हुई। 

आज किशोर की शादी है। किशोर ने तो कब मुझ से नाता तोड़ लिया था, यह मुझे भी नहीं पता। पर समाज के दिखावे के कारण मुझे पूरी शादी के कार्यक्रमों में इज्जत के झूले पर बैठाकर झुलाया गया। मैं उस वक्त को बांध देना चाहती थी। समय के चक्र के पहियों को वही रोक देती, यदि मेरे हाथों में कुछ होता तो शायद उस समय के हर पल को अचल बना देती। शादी की धूम धाम में कब समय निकल गया पता ही नहीं चला।

शादी के बाद किशोर एकदम बदल गया। अब तो वह अपनी बीवी के सामने भी मुझे बेइज्जत करने का कोई पल नहीं गवाता।

 किशोर मुझे बदचलन समझता था। और यही सब को अपनी दुल्हन के दिमाग में भी पढ़ा रहा था।

 बड़े भाई ने वक्त के साथ-साथ खुद को भी बदल लिया। कई दिनों के बाद पता चला किशोर यह सब जानबूझकर कर रहा है ताकि उसके कंधों पर तीन भाई-बहन की जिम्मेदारी ना डाल दी जाए पर।

 मैंने अपनी जवानी ऐसे ही काली नहीं की सब समझती थी, और शायद इसीलिए उन सबके लिए बहुत कुछ कर रखा था। 

आज मैं तीन बरस बाद कुछ लिख रही हूं। आज मेरा अपना जना बेटा भी दूर हो गया। मैं किसी का नाम नहीं लिख सकती, पर जानती सब हूं कि यह सब काम किसने किया।

 छोटा मुझे बाजारु औरत का ताज पहना कर मुझे छोड़ गया। 

  आज मेरी तबीयत बहुत खराब लग रही थी। मुझे इतने बड़े मकान में डर लग रहा था। मकान इसलिए कि वह कभी मैं घर बना ही नहीं सकी। मुझे मेरे बच्चों की बहुत याद आ रही है।

 बाहर किसी की आवाज आ रही थी, कि दीदी से नाम लिखवा लो नहीं तो इतने बरसों की मेहनत पानी में गई समझो। मैं पूरी कहानी समझ गई। मैंने मन ही मन कुछ सोचा और हिम्मत कर बाहर आ खड़ी हुई। मैंने आज पहली बार अपने बाप समान भाई के सामने मुंह खोला और इतना ही कह पाई, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद भाई। एक मजबूर बहन और मां का आपने खूब फायदा उठाया। पर अब नहीं।

चार-पांच दिन के बाद जब थोड़ा सेहत में सुधार हुआ, तो मैं सबसे पहले अपने वकील के पास गई और अपने कान की बाली तक के बराबर हिस्से कर दिए ताकि मेरे बच्चों के मन में मेल पैदा ना हो।

 आज मैं अंतिम बार कलम पकड़ रही हूं। मेरी नौकरी का यह अंतिम दिन है। मैंने सारा हिसाब बना रखा है। इस कॉपी के अंतिम पृष्ठ पर देख लेना। मुझे सरकार से जो भी पैसा मिलेगा वह सब तुम बराबर लेना। 

किशोर और छोटू मैंने अपने जीवन में कभी कोई सुख या खुशी को महसूस नहीं किया। कारण तुम्हारे पापा के चले जाने के बाद तुम्हारी अच्छी परवरिश का पहाड़ मैंने ही खड़ा कर लिया था। मैंने खाने से लेकर कपड़ों तक में अपने मन को मार मार कर तुम्हारे लिए सुखों का जहाज खरीदने का प्रयत्न किया। बेटा मैंने अपने जीवन में कभी किसी पर पुरुष की छाया को भी अपना मन मेला नहीं करने दिया। पर ना जाने तुम लोगों के मन में मेरे प्रति गलत भावना का महल किसने बना दिया। मैं अपने देह का त्याग आज ही कर रही हूं। सोचा तो पहले भी कई बार था, पर हिम्मत नहीं कर पाई। पर आज छोटू तेरे विचार मेरे प्रति इतने गंदे और घिनौने होंगे, यह सोच मेरी रूह कांप गई। जो मेरी कल्पना से भी परे थी। 

इस जीवन में अब मेरी ऐसी कोई जिम्मेदारी से मैं मुंह मोड़ कर नहीं जा रही हूं, जिसको निभाने में तुम लोग आपस के रिश्तो की डोर को खींचो। मैंने मेरे हिसाब से अपने हिस्से के सारे कर्तव्य पूर्ण निर्वाह किये। मेरे बच्चों बस तुम्हारी मां की अंतिम इच्छा पूरी कर देना और वह ये कि मेरे प्रति अपने विचारों के महल को मेरे साथ ही जला देना। मैं सिर्फ तुम लोगों के कारण ही जी रही थी। और अब मेरी मृत्यु का कारण भी तुम ही हो।  रोम-रोम तुम्हारा ऋणी रहेगा यदि तुम लोग मुझे माफ कर सको तो। माफी इसलिए कि मैं तुमको अपनी मजबूरियों की राह समझा नहीं पाई। माफी इसलिए कि मैं तुम जैसी स्वार्थी नहीं बन पाई। माफी इसलिए कि मैंने अपनी खुशी तुम लोगों में तलाश की। माफी इसलिए कि मैंने अपनी जमा पूंजी उस मकान में खर्च की जिसकी नींव मेरी ही कब्र तक जाती थी। यदि मैं स्वार्थी होती तो तुम यकीन मानो आज तुम सब किसी अनाथालय या सड़कों पर बैठे भिखारियों की कतार में उन्हीं के जैसे बन बैठे होते।

 मैं पुनर्विवाह कर अपना जीवन सुखी बना लेती। पर नहीं, मैं औरत से पहले मां थी, और शायद इसीलिए औरत के हर उठते ख्वाबों को मैंने अपने बच्चों के जीवन संवारने रूपी ठंडे जल के छिटों से शांत कर डाला था। 

 बेटा मैंने इस धरती मां पर जन्म लिया। पर मैं धरती की बेटी ना बन पाई। आज मैंने कायरता का कदम उठाया। मैं अपना जीवन समाप्त कर रही। पर मेरी मौत को तुम लोग मजाक मत बनाना। मेरी मौत का स्वागत तुम चारों एक साथ मिलकर करना और गलत संगत से अपने परिवार को बचा कर रखना। आज इस धरती की बेटी की कहानी यहीं समाप्त हुई। 

 धरती की बेटी तुम्हारी मां।।

डॉ. संध्या पुरोहित

छत्रीबाग, बाराभाई इंदौर