सृजन

शब्द–शब्द छंद  हों, अर्थ–अर्थ काव्य बने। 

सृजन! का दिनकर–सा, उदिप्त भाग्य बने।                    

पवित्र हो  शब्द की, मंत्रों   का   उच्चारण लगे, 

युगप्रवर्तक  हो  की, जनता को  उदाहरण लगे,

शब्दों  की ध्वनि हो, पंछियों  का  जैसे   गुंजन,

प्राप्त हो  अमरत्व, काव्य का हो सृजन–सृजन।

गाथा हो शौर्य की, कलम का सौभाग्य बने।

सृजन! का दिनकर–सा, उदिप्त भाग्य बने।

पाञ्चजन्य नाद भी, पर बंसी की मधुर तान है,

श्रेयष्कर  है   शब्द, वो जिनमे प्रेम का गान है,

शस्त्र  नहीं  हैं  शब्द, बनना हृदय की भाषा है,

विनम्रता   से   किए, संवादों की  परिभाषा  हैं।

शब्द हो ना शस्त्र, सदैव शास्त्र के योग्य बने।

सृजन! का दिनकर–सा, उदिप्त भाग्य बने।

पायल पांडेय ‘ गीतानिल ’

मुंबई शहर