उनके बीत जाने के बाद
मैं अक्सर देखता रहता हूॅं
भावुक होकर, उनके पदचिन्ह।
वहीं बैठकर समेटता रहता हॅूं
सारी यादें एक-एक करके
गिरी हुई किताबों की तरह।
उनके पदचिन्हों का सहलाता हॅॅंू
उसमें महसूस करता हॅूं – एक धड़कन,
एक आवाज, एक अथाह सागर,
थोड़ा सा लाड़ प्यार और गाल पर एक
हल्की सी चपत के साथ डांट भी।
मुझ पता भी नहीं चलता है और वे
मुझे निचोड़कर, मुझमें सी खींच जाती
है सारी निराशा
इतना करते-करते मैं फिर जी उठता हॅंू
और देखता हॅूं उन्हें दूर क्षितिज तक जाते हुए
आॅंखों से ओझल होने तक।
डॉ. लोकेन्द्रसिंह कोट
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