मोक्षधाम तक!

           अल सवेरे त्रिपाठी जी नींद से जागे ही थे कि दुबेजी के फोन ने उन्हें हिला कर रख दिया। त्रिपाठी जी बता रहे थे ,”दुबे जी,मौहल्ले में सेठजी के बेटे की हृदयाघात से मृत्यु हो गई है। लाकडाऊन के चलते हम अंतिम संस्कार में भी शरीक नहीं हो सकते, केवल परिजन ही मोक्षधाम तक जाएंगे।”दुबे जी ने दुखी स्वर में कहा।

“क्या हो रहा है दुबेजी! जो इंसान चाह रहा था वही आज सामने आ रहा है।” त्रिपाठी जी ने कहा।

“मैं आपका मतलब नहीं समझा त्रिपाठी साहब?” दुबे जी ने उत्सुकता से पूछा।

“इसमें समझने न समझने वाली कोई बात नहीं। बस सोचने वाली बात यह है कि पहले जहां हम अंतिम यात्रा में मोक्षधाम तक पैदल जाया करते थे,आज अपने-अपने वाहनों से जाने लगे हैं। और तो और कई तो सीधे मोक्षधाम पहुंच कर अपनी संवेदनाएं व्यक्त कर रहे हैं। मुखाग्नि की रस्म पूरी होने के बाद कई अपने-अपने वाहनों से अपने-अपने घर!” त्रिपाठी जी ने गंभीर स्वर में कहा।

“आप सही कह रहे हैं। आज शव यात्रा घर से थोड़ी दूर तक चल कर मोक्षरथ पर सवार हो जाती है। परिजन मोक्षरथ में और यात्री अपने वाहनों से पीछे-पीछे।” दुबे जी ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा।

“हां हम दिनबदिन संवेदना शून्य होते जा रहे हैं।” त्रिपाठी जी ने कहा।

“सही कह रहे हैं आप कि हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं। शोक सभा में भी हम इस तरह शरीक होते हैं जैसे बहुत ही जरूरी काम छोड़कर अहसास करने आये हों।” दुबे जी कठोर स्वर में बोले।

“अरे,आप अहसान की बात कर रहे हैं! शोक सभा सम्पन्न होते ही परिचितों से हमारा मिलना ऐसे होने लगता है जैसे हम किसी बगीचे में घूमने के लिए आए हों। वाह रे शोक व्यक्त करने का अंदाज?” त्रिपाठी जी ने अपनी वेदना प्रकट की।

“बात दरअसल यह है कि हमारी संवेदनाएं क्या यूंही लुप्त होती रहेगी? न जाने क्यों हमारी दुनिया सिमटती चली जा रही है। कुछ भी नहीं किया जा सकता!” त्रिपाठी जी ने भारी मन से कहा।

     अब न प्रश्न बचे थे और न उत्तर। कदाचित बचे भी हों तो सभी अनुत्तरित! आखिरकार जयश्रीकृष्ण बोलकर दोनों ने फोन काट दिए।

तरुण कुमार दाधीच

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