पिलाया क्यू हमें इश्क़ का जाम…

हम तो समझे थे उसे मोहब्ब्त का मक़ाम

बीच राह में छोड़ के चल दिये वो तीन धाम

राह इतनी आसान भी नही थी मन्जिल की

कोई तो आके थाम लेता हमारा हाथ

अज़नबी थे तो अज़नबी ही रहने देते

पिलाया क्यू अपने हाथों से इश्क़ का जाम

रिश्ता निभाना आसान भी नही उल्फ़त में

कभी कभी देनी पड़ती है उल्फ़त में जान

बेक़रारिया जब हदसे बढ़ने लग जाती है

तब पहना देना तो आके बाहों के हार

न जाने कोनसी ख़ता की सज़ा मिल रही है

बेइंतेहा मोहब्ब्त भी मर मर के जीला रही है

तुम आओ तो रूह को ज़िला आये 

मरते हुए इंसान को कुछ पल क़रार आये

आरिफ़ असास

दिल्ली