कोशिश

रोज मेरी खिड़की पर आती है किरण, 

पर्दें से तनातनी चलती है उसकी, 

दूर करना चाहे   वह इस पार का  तिमिर, 

पर्दें  हिलते हैं बल खाते हैं ऐसे  चलता समीर| 

किरण भी है तो वह रवि की, 

कहां रुकने वाली वो  परदे से, 

बस मौका पाते ही आ  गई अंदर, 

रौशन हो गया सारा घर, 

चमक रहा जैसे घर का हर दर,

मन के सारे अँधेरे को ले गयी हर, 

आ ठहरा मुंडेर पे यह मेरा दिवाकर, 

कह रहा है ह्रदय के बोझ रख उतारकर| 

वह किरण आती  उम्मीद जगाती, 

घर ही नहीं मन के  तिमिर को भगाती, 

यत्न हजार करती पर नहीं अकुलाती,

 अपनी प्रयास में सफल भी हो जाती| 

स्वर्णिम आभा से नहाई किरण,

तन मन को छू कर उष्णता प्रदान करती, 

हो जाता हर्षित मन पाकर उसकी छुवन, 

देती है एक संदेश करती नवीन संचरण, 

वह कहती है देख मैं तो पूरा सूरज ही ले आई हूं, 

एक नवीन आशा जगाने, 

नव निर्माण करने, उजास फैलाने,

किरण और पर्दें की जद्दोजहद 

बतला गयी हमारी हद

अपने मन के सूरज को मत बांध कर रख|

सविता सिंह मीरा 

जमशेदपुर