” भूखा पेट”

 भूखा पेट 

क्या लड़े किसी से,

कुछ लोगों ने,

 सोच को अपंग बना दिया ।

उनकी हिम्मत न थी ,

कुछ कहने की,

 अपनों ने ही 

जुबा बंद करा दी ।

जब तक समझ पाते,

 तब तक देर हो गई ,

भूखे बच्चों के साथ ,

बेचारी मां भी सो गई।

 पथरीले रास्तों पर,

 कब तक चले कोई,

 देख पांव के छाले,

 सुखी आंख भी रोई,

 दुखों का सफर है,

 कटता ही नहीं,

 कैसे रखे हिम्मत,

 जब कुछ बचा ही नहीं ।

इज्जत से जीती है ,

दुनियां से टकराती है ,

ममता की मूरत वह,

 ना जाने हिम्मत कहां से लाती है।

 नीरज सिंह

 टनकपुर (चंपावत)