गीत

तुम किनारा गर बनो तो मैं नदी सी बह चलूँ।

निज हृदय का राज़ हर इक तुम कहो तो कह चलूँ।।

मोड़ आएँगे कई चलते हुए इस राह में,

आँधियाँ भी रोक लेंगीं रास्ते को डाह में।

हर भँवर लेगा परीक्षा धैर्य की हर बार ही,

पर निकलने में लगेंगें बस दिवस दो चार ही।

तुम रहो जो साथ मेरे दर्द सारे सह चलूँ।

तुम किनारा गर बनो तो मैं नदी सी बह चलूँ।।

मुझ शिला को नेह मंदिर में सजाकर रख सको,

ले चलो मुझको हृदय में गर बसाकर रख सको।

ज्यों समेटे सूर्य अपनी कांति को संध्या समय,

और मोती सीप के अंतस रहे जैसे अभय।

राधिका बन उम्र भर को संग तेरे रह चलूँ।

तुम किनारा गर बनो तो मैं नदी सी बह चलूँ।।

ताप तेरा गुनगुना है सर्दियों की धूप सा,

मीत मेरे तेज तेरा खिल रहा है भूप सा।

अनगिनत यादें सुनहरी साथ चलने हैं लगी,

झाँक कर उनमें हँसूँ मैं प्रेम के रस में पगी।

खुल गई गठरी सहेजूँ मैं लगाकर तह चलूँ।

तुम किनारा गर बनो तो मैं नदी सी बह चलूँ।।

–अनीता सिंह “अनु”