” मैं अब मैं होना चाहती हूँ”

        ना काली ,ना दुर्गा ,ना सरस्वती होना है 

    ना नर ,ना नारी ,ना अधनारेश्वर होना हैं 

    अब सिर्फ मैं निराकार होना चाहती हूँ

    मैं अब मैं होना चाहती हूँ

         ना गली ,ना कुछा, ना बस्ती होना है

    अब सिर्फ  मैं पूरा शहर होना चाहती हूँ

    मैं अब मैं होना चाहती हूँ,

    ना दर ,ना दिवार ,ना कोई कोना होना हैं

    ना मकान ,ना खिड़की ,ना दरवाजा होना हैं

   अब सिर्फ मैं आंगन की तुलसी होना चाहती हूँ

   मैं अब मैं होना चाहती हूँ,

   ना कोई शब्द ,ना अल्फाज  ,ना संवाद होना हैं

    ना किसी की कहानी ,ना किसी का अफसाना होना हैं

    अब सिर्फ मैं कौरे पन्नों की कोई किताब होना चाहती हूँ

     मैं अब मैं होना चाहती हूँ

   ना बेटी, ना माँ, ना पत्नी होना हैं

   ना कोई रिश्ता ,ना कोई रिवाज होना हैं 

  अब सिर्फ मैं आसमां में उड़ती पतंग होना चाहती हूँ

   मैं अब मैं होना चाहती हूँ, 

  नीतू यादव,

राजस्थान।