राजेंद्र बज
वैसे तो ऊंट का भरोसा नहीं होता कि वह किस करवट बैठेगा ? लेकिन इधर हमारे मालवा में जिनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान की भिन्नता हुआ करती है, उन्हें ‘ भरोसे की भैंस ‘ के रूप में नवाजा जाता है। अब यह तो पता नहीं कि ‘ भरोसे की भैंस ‘ आखिर क्या होती है ? लेकिन प्राप्त जानकारी के अनुसार बोलचाल की भाषा में ऐसा माना जाता है कि भरोसे की भैंस हमेशा पाड़े को जन्म दिया करती है। जिन्हें जमाने की समझ हुआ करती है , वे भूलकर भी किसी भी भैंस पर भरोसा नहीं करते हैं। जहां भरोसे की भैंस की बात होती है,वहां किसी पर किसी भी बात का भरोसा करना खतरे से खाली नहीं होता।
खैर, मैं ठहरा कान का कच्चा, हर किसी की हर कोई बात को मैं गंभीरता से ले लिया करता हूं। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि जब दिन को रात करार दिया जाता है, मैं आंखें मूंदकर ऐसे कथन की सत्यता को निकट से महसूस कर लिया करता हूं। हालांकि अपनी इस आदत के चलते कई बार लाभ के सौदे को घाटे में बदलते हुए देख चुका हूं। जिन्हें राजनीति की गहरी समझ होती है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि जमाना सीधे-सच्चो का नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से सरलता कुटिलता को ध्वस्त कर देती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर कुटिलता को ‘ कूटनीतिक बुद्धि ‘ के रूप में राजनीति में प्रयुक्त कर लिया जाता है। इससे एक प्रकार की ‘ राजनीतिक सिद्धि ‘ प्राप्त हो जाया करती है।
हाल ही में हम भरोसे में आकर बे-भरोसे हो गए। वैसे जहां तक राजनीति का प्रश्न है, तो इसमें कोई यह दावा नहीं कर सकता कि आखिर कौन सी भैंस पर भरोसा कर लिया जाए ? ताकि भरोसा भरोसे की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतर सके ? लेकिन जब राजनीतिक लहर या आंधी प्रवाहमान होती है, दिलो-दिमाग विवेक शून्य होकर रह जाता है। वैसे हम अच्छी तरह जानते हैं कि जो जितने मंजे हुए राजनीति के खिलाड़ी होते हैं – वह अपने आचरण और व्यवहार से हमें उन पर भरोसा करने के लिए बाध्य कर ही दिया करते हैं। आमतौर पर ऐसा 5 वर्षों के अंतराल से होता है लेकिन कभी-कभी किसी की बगावत के चलते मध्यावधि में भी हो जाता है।
राजनीति में ऐसी शख्सियत को चतुर राजनेता के रूप में जाना जाता है। ऐसे नेता चित हो या पट, लेकिन दोनों हाथों में लड्डू का थाल लिए जनता जनार्दन को भरमाते ही रहा करते हैं। दरअसल आज के दौर में ऐसे ही नेताओं की बलिहारी हुआ करती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते एक ओर जहां भरोसे की भैंस को पाड़ा जनने का दोषी माना जाता है, वही भैंस पर विश्वास का पुरजोर डंका भी पीटा जाता है। वैसे हम चुनाव-दर-चुनाव हर एक भैंस पर भरोसा करते रहे हैं । अब यह अलग बात है कि जब आधे से ज्यादा लोग किसी भैंस विशेष पर भरोसा कर लेते हैं – तब उन्हें भी यह भरोसा नहीं होता कि यह पाड़ा नहीं जनेगी !