*मैं अकेला !*

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अक्सर अकेला बेहद अकेला हो जाता हूं मैं,

भीड़ तो होती है चारों ओर और सब अपने में गुम 

आवाजें ही आवाजें जो चीखों में बदल जाती हैं

और अचानक फिर बेहद बेहद डर जाता हूं मैं;

भीड़ से नहीं अपने आप से खौफ खाता हूं मैं,

क्योंकि पता नहीं होता अक्सर अकेलेपन का

भीड़ में खोये खोये जीते चले जाने से

भीड़ की आवाजें सुरक्षा देती सी लगती हैं

इसी भीड़ की मिट्टी की पैदाइश सा लगता हूं मैं;

फिर भीड़ में से कोई आकर झंझोड़ जगा देता है

और फिर पैदाइश की मिट्टी सरक जाती है पांव तले

और खुद को अपने ही अंधेरों में गिरा पाता हूं मैं

बहुत टटोलता हूं पर कोई राह नहीं पाता हूं मैं;

भीड़ के अहंकार के पटरों से पट जाता है मेरा अस्तित्व 

चूर चूर होता हुआ खुद से अपनी पहचान पूछता सा है

पर खत्म नहीं होता फिर भी बचा रहता है

अपने अंदर के गहरे किसी सुदूर कोने में थरथराता सा

अगले ही पल आने वाले आघात की आशंका में 

और फिर अपने मिटने के डर से कांप जाता हूं मैं, 

क्योंकि अब सचमुच खुद को बेहद अकेला पाता हूं मैं!

*- प्रभाकर सिंह*

*प्रयागराज (उ. प्र.)*