अपनों से डर

अपने ही घर में है , अपनों से डर ।

कहते हैं फिर भी , ख़ुद को निडर ।

सुरक्षा के हैं जिन्हें –

चार – चार घेरे ।

करोड़ों की कार को –

जो पानी फेरें ।

मंज़िल से पहले , जो लौटे हैं  घर ।

कहते हैं फिर भी , ख़ुद को निडर ।

छप्पन को जिन्होंने –

लजा दिया पल में ।

बहादुर कैसे कहेगा –

कोई उन्हें कल में ?

शर्म से देश का , झुका दिया सर ।

कहते हैं फिर भी , ख़ुद को निडर ।

अपनों से संवाद में –

भला कैसा परहेज़ ?

चाहते थे जो मिलना –

थे वो सरल और सहज ।

प्रश्न , लौटे क्यों वो , मुंह छुपाकर ?

कहते हैं फिर भी , ख़ुद को निडर ।

किस मुंह से वो हमारी –

सुरक्षा की बात करेंगे ?

उनकी किसी बात पर –

हम ध्यान नहीं धरेंगे ।

रहेंगे न ख़ुद से , अब इतने बेख़बर ।

कहते हैं फिर भी , ख़ुद को निडर ।

लोकतंत्र में संवाद –

होते रहना चाहिए ।

दूरियां हैं जो भी –

अब पटना चाहिए ।

मिलना हो न , उनसे अब  दुभर ।

कहते हैं फिर भी , ख़ुद को निडर ।

+ अशोक ‘ आनन ‘ +

   मक्सी