घूमते हुए

किसी प्राचीन किले के पास

असंख्य सवाल घेर लेते हैं

हर किले का

अपना एक इतिहास है

युद्ध का

युद्ध शब्द 

हमेशा मुझे जर्जर करता है

किले की पीछे की

जर्जर दीवारों की तरह

कितनी कूटनीति, कितने रक्तपात के बाद

हम कुछ बचा पाते हैं

प्रश्न बार – बार उठता है

सत्य क्या अहिंसक हो सकता है?

किले को देखते – देखते

एक आकृति बनती जाती है

मनुष्य की

मनुष्य भी

पूरे जीवन के संघर्षों के बाद

एक किला ही बन जाता है

लोग आते हैं

मिलते हैं

फोटो खींचते है

चले जाते हैं

कितने मसरूफ हैं लोग

अपना भविष्य गढ़ने में 

कोई साथ गुजारना नहीं चाहता

कोई बांटना नहीं चाहता

अपना जीवन उनके साथ। 

मैं किले को देखती हूँ

देखते – देखते

बूढ़ी हो जाती हूँ

जीवंत हो उठते हैं

मुझमें सारे बुजुर्ग

कितने युद्ध की विभीषिका में

बचाए गए थे किले

कितने भविष्य के गढ़ने में

छोड़े जा रहे बुजुर्ग

हमारा भविष्य उस किले – सा

बहुत बूढा हो चुका है

दफ्न सम्वेदना के नीव पर

हम भविष्य गढ़ रहे हैं

थोड़ा – थोड़ा करके

हम रोज मर रहे हैं…..!!

सरिता अंजनी सरस

गोरखपुर, उत्तर प्रदेश