वह जब भी बैठता,
कुर्सी खचर खचर बज उठती,
बहुत समय तक,
शर्म और संकोच के मारे
सही ढंग से बैठ भी नहीं पाया था,
पहली बार बैठा तो लगा
कभी भी कुर्सी की मेहरबानी
हवा होगी और वह जमीन पर,
पर हुआ ऐसा नहीं,
वैसे उससे ज्यादा उसकी कुर्सी ही
शर्म और हया की मारी थी,
खुली टांगे, वह भी टेढ़ी,
लटकी हुई,
कुर्सी का चेहरा विद्रूप हो गया,
अनवरत आंखें नीची कर
लोगों को कुर्सी में न बैठने
मनाती,
कभी-कभी गुस्से में
कुर्सी के कान लाल होते दिखे,
कुर्सी गम की मारी थी,
बैठने वाले बेशर्म,
कई बार कुर्सी द्वारा
पटक भी दिए गए थे,
फिर भी कातर निगाहों से
दूर से उसे ताकते,
हांफती ती हुई कुर्सी और
उसकी नियति की तरफ
ध्यान नहीं था किसी का|
संजीव ठाकुर, रायपुर छ .ग
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