नर नहीं मादा नहीं
पर सांस उनमें भी भरी
कुछ अंग का भेद सही पर
खाता वही जो खाते हम सभी।
कुछ नहीं मांगती वो
सिवाय सम्मान के
पहला परिवार से
और
दूसरा समाज से।
किसी ने छक्का,
किसी ने हिजड़ा,
तो किसी ने किन्नर कहा
एक अपने नाम के अलावा
लोगों ने न जाने क्या-क्या कहा!
भूल गयी वो नाम अपना
त्यागा गया जब परिवार से
नम सी आंखों से पूछती वो
दोष अपना समाज से।
जीवंत हैं उसमें भी
भावनाएं उतनी
जितनी हम सब में हैं भरी
प्रकृति ने भी जब कोई
भेद उनमें न किया
फिर ए! समाज तूने
क्यों उन्हें विस्मृत किया?
घर से ठुकराया गया जब
आ गयी/फिर बाजार में
खुद को संभाला
मगर
प्रताड़ित हुई समाज में।
समाज
जो हँसता है उस पर
ठह ठहाके लगाता है
नँगा करके चौराहे पर उसको
अपनी वर्चस्व दिखलाता है।
काम तक देने को
कोई भी नहीं तैयार जब
क्या करे वो भी भला
कैसे करे निर्वाह अब?
क्या करे जब बैठना तक
साथ न मंज़ूर हो?
नोकरी न दे कोई तो
पेट कैसे शांत हो?
मजबूरन कोई भी
सेक्स वर्कर होता नहीं
जब-जब अस्वीकार किया
परिवार और समाज ने
वो अल्प मरता रहा
शर्मिंदगी के बाजार में।
दर्द उनका, उनकी पीड़ाएँ
कोई भी समझता क्यों नहीं?
प्रश्रय उनकी भावनाओं को
अपने हृदय में कोई क्यों देता नहीं?
जब भी देखा गया
बस संशय से देखा गया
पूछता तो कोई उनसे
उनके मन की पीड़ा
किस तरह जीतें हैं वो
और क्या है उनकी वेदना।
आँसू उनके कभी तो
कोई जन फिर पूछता
शायद कुछ तो ज़ख्म भर जाते
अगर उनके हृदय में भी
कोई अगर झाँकता।
बुद्धि तुम्ही जैसी है उनमें
शारीरिक कद काठी भी एक है
समानता-असमानता का
भेद फिर क्यों व्याप्त है?
आह उनके हृदय की भी
करती निवेदन शेष है
असमानता को मिटाकर हृदय से
दो हमें भी समानता
कभी तो पूछो हमसे भी
क्या हम संग है घटा?
एक बार बैठकर जरा तुम
पूछों कि हम संग क्या घटा
बैर और भेदभाव की
दीवार तुम दो गिरा
हमें अपने सीने से लगाकर
हमे दो अपने हृदय में जगह
अस्तित्व पर हमारे न प्रश्न उठाओ
कर लो हमे भी स्वीकार तुम
हम भी तुम संग मुस्कुराना
और चलना हैं चाहते।
हमको भी एक बार छूने दो
आकाश को
हमको भी खुली हवा में
सांस अब भरने दो जरा
पैरों पे अपने हमें भी
खड़े होने का
अवसर दे दो तो जरा।
डॉ० दीपा
असिस्टेंट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय