यह कैसा क़ानून है जिसमें
गद्दार बचाए जाते हैं,
ना जाने इन ख़बरों में
कितने अख़बार जलाए जाते हैं!
यह कैसा माहौल है,
अब तक इंसानों में फर्क करता है,
ना जाने क्यों,
बॅंटी ज़मीनों पर कुतर्क करता है?
यह कैसा बहरापन है कुर्सी का,
यह सिसकियाॅं क्यों नहीं सुनता है?
कैसा गूॅंगापन है लोगों का,
सहमे हुए मौन यह बुनता है!
क्या अभी भी किताबों में,
ईमान की बातें पढ़ाई जाती हैं?
और फिर मज़हब के नाम पर,
लाशेॅं बिछाई जाती हैं?
अब इंसान का हर कदम जैसे,
इन्सानियत को गड्ढे में फेंकना है,
कितना दर्दनाक अब
इस मंज़र को देखना है।
मैं इतनी बैमानी देखकर
तुम कहते हो चुप हो जाऊॅं?
मैं इन्सानियत से मुॅंह फेरकर,
तुम जैसी हो जाऊॅं?
फिर तो डरपोक हूॅं मैं,
मेरा ज़मीर ऐसा कहता है,
मैं कैसे रोकूॅं वो खून,
जो मेरी कलम से बहता है?
मैं चुप नहीं हो सकती,
इस मचे बवाल को देखकर?
नहीं, मैं चुप नहीं हो सकती,
इन्सानियत का यह हाल देखकर!
मिली पाण्डेय “मिलीतृष्णा”
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)