बात-बात पर क्यूँ निकल पड़ते हो
धर्म को अपना मोहरा बनाते
मुद्दों की भी अहमियत होनी चाहिए
न हिजाब जरूरी ज़िंदगी के लिए
न केसरिया स्कार्फ़ भूख मिटाता है
क्यूँ न ज़िक्र होता है, न फ़िक्र होती है
यायावर से जो मारे-मारे फिरते है
काम की तलाश में उन लड़कों की
अनसन की आबरू रह जाए
मिल जाए हवा जो बेरोजगारों को
सियासत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की
पूछो उन लड़कों को पास बिठाकर
कितना तकलीफ़ देह होता है मंज़र
डिग्री तो होती है जिनके हाथ पर
जेब में खनकती नहीं फूटी कौड़ी
कोई तो आवाज़ उठाओ
कोई तो मोर्चे निकालो
दिलवाओ उनको भी इंसाफ़ की झंडी
टिकी है जिनके कँधों पर पूरे परिवार के
जिम्मेदारीयों की गठरी।
भावना ठाकर “भावु” बेंगलोर