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सूरज जब ढ़लने लगता
वैसे ही प्रकृति की धड़कन
रुकने लगती और
ओढ़ लेती चादर उदासी की
आसमान लगता पूछने सूरज से,
तुम जा तो रहे हो
पर कल सुबह आना जरूर
देखो कहीं घिर मत जाना
बादल से
वरना हम अकेले रह जाएंगे।
तभी बादल भी बोल पड़ा…
अरे! सूरज पर क्या
बस तुम्हारा ही अधिकार है?
मेरा कोई अस्तित्व नहीं?
कुछ पल हमारे साथ रहना
क्या तुम्हें भाता नहीं ?
धरती बेचारी
कुछ पल रुक, बोल पड़ी…
मैं अधूरी हूँ तुम्हारे बिन
मेरी आभा
मेरी हरियाली
सब सुनी तुम्हारे बिन
ये पेड़, पौधे, पंछी, जानवर
कल-कल करती नदियां
और हमारे प्यारे मानव
कुछ भी नहीं तुम्हारे बिन,
हो सके तो जगभर में
रौशनी फैलाना
देखो सूरज तुम
जल्दी आना, भूल न जाना।
रात मौन होकर
सब सुन रही..
अपनी व्यथा कहने की
कोशिश भी कर रही
तभी सूरज बोल पड़ा
जैसे मेरी रोशनी बिखरती है
घर आंगन..
वैसे ही चांद का भी तो
अधिकार है इस धरा पर …
जब तक मैं नहीं ढलूंगा तो,
रात का आगमन कैसे होगा?
रात न होगी तो
चांद से बातें कौन करेगा ?
सितारों संग कौन खेलेगा?
जब चांदनी बिखरेगी
इस प्यारी धरा पर
तभी तो प्रेम का अंकुर फूटेगा ?
दिन भर की आपाधापी से
जीव जंतु और जनमानस
शांत होगा, सुकून मिलेगा
अब मुझे जाने दो
देखो! मत रोको मुझे
वरना प्रकृति
तहस-नहस हो जाएगी
बस कुछ पल का विरह सह लो
तभी तो नया सूरज
नई किरण के साथ,
एक नई सुबह ला पायेगा।
● प्रिया सिन्हा
रांची (झारखंड)