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निराशा
अंधेरे की ओट में खड़ी है
लगता है यह
जिंदगी से भी बड़ी है
जिंदगी
जो हम जी रहे हैं
हमारी नस-नस में
अंधेरा है
मन के सुने खंडहरों में
आतंक के उल्लुओं का
बसेरा है
आत्मा के अंधेरे कोने में
चेतना की लौ
कहीं धुंधला गई है
धर्म, नीति, आदर्श,
आस्था, प्रेम, सत्य,
दया, करुणा, आशा,
प्रेरणा, पुण्य,
समर्पण
खोखले शब्द मात्र
हो गए हैं
लगता है इनमें
कुछ तो मर ही गए हैं
कुछ गूंजते हैं यदा-कदा
दर्द को गुनगुनाते हुए
हर शब्द का अर्थ
बदल गया है
हर चीज की तासीर
बदल गई है
मन के गलियारों में
चहल कदमी करते हुए हम
संस्कारों की पोटली
न जाने कहाँ
टांग आये हैं
आदमी की मति
क्यों मारी गई है
कृतज्ञता का यह रास- विलास
यह संत्रास, यह संताप
यह कुंठा, यह अभिशाप
और गुटन
मानवता सह रही है आज
अनाम, अनगिनत
पीड़ा प्रश्नों के डंक
जो अंकुरित हो उठते हैं
किसी भी आबोहवा में
श्रापित इस जीवन में
क्या कोई मोक्ष द्वार भी
खुलेगा जो दुनिया को
मनुज के
स्वार्थ, सनक, साजिश से
मुक्ति दिलाएगा
अब दूरियां ज्यादा है
और समय कम!!
■ राजकुमार जैन राजन
चित्रा प्रकाशन
आकोला- 312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान
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