पृथ्वी दिवस पर

तुझ से दूर कहां जाना है

तुझ से दूर कहां जाना है,अगर

जाना है तो तुझमें ही समाना है,

तू है हर नारी का दर्पण,

तुझसे सीखा मैंने समर्पण,

जो  भी तुझसे पाया है,

तुझ पे ही तो गवाना है।

तू हर मन की पीड़ा हर लेती है,

 तू जन-जन में जीवन भर देती है,

तू पग-पग से रौंदी जाती है,

फिर भी तेरे क़दमों में जमाना है।

कहीं तुझ पर बहती निर्मल नदियां,

कहीं सूखी है रेगिस्तान सी  सदियां,

तुझ पे ही हर माैसम खिलते है, कभी 

तुझ को अम्बर को हाथ थमाना है।

खिल उठती है तू कभी ओढ़ के पीत वसन,

बिखरे हो पलाश तो तू लगती है नई दुल्हन,

जब आता है नव बसंत, तेरे  मन की 

गलियों को कली फूलों से सजाना है।

तुझ पर जन्मी, तुझ पर खेली,

अब तुझ में ही समाना है।

 बता, तुझ से दूर कहां जाना है।

          •अनुराधा दोहरे

शिक्षिका, इटावा (उ.प्र.)