द्रवित चांद 

अवनी की पीड़ा देखकर,

द्रवित चांद बोला एकदिन।

उर्वी को बना रहा आग का गोला,

मनुज बहुत पछताएगा तू एकदिन।।

नदियों को कर रहा प्रदुषित,

वन उपवन को भी दे रहा काट।

खेत खलिहान सब बेच रहा आज,

क्या खाएगा-पिएगा तू एकदिन।।

सीमेंट के महलों मे तू,

सपने बुनता रात – दिन।

बता बिन परिंदों के कौन सा,

साज बजाएगा तू एकदिन।।

जो ना बची ये शस्य-श्यामला,

तू भी ना बच पाएगा एकदिन।

चांदनी रात का जो उठाता है लुत्फ,

वो लुत्फ भी ना उठा पाएगा तू एकदिन।।

प्रियंका त्रिपाठी ‘पांडेय’

प्रयागराज उत्तर प्रदेश