अंतिम अभिलाषा

कुछ रुक कर आओ मृत्यु सखे, मन में अभिलाषा बाकी है

दो शब्द आखिरी है कहना, बस चंद्रमुखी से बाकी है

आ गई अगर कुछ देर रुको, अरमान अधूरे बाकी है

उन उलझे बिखरे केशों मे, कुछ फूल सजाने बाकी है

कहती हो मनमीत मुझे तुम, संग संग लेकर जाओगी

छिपा नजर से इस दुनिया की, अपनी दुनिया ले जाओगी

पर स्वप्न सुंदरी सपनों से, क्या मुझे अलग कर पाओगी

उस मृगनयनी के नयनों से, क्या मुझे चुरा तुम पाओगी

बेचैन रहो चाहे जितना, आगोश में न भर पाओगी

छल भरे मचलते नयनों से, ना मुझे भ्रमित कर पाओगी

एहसास मादक बांहों का, न मुझसे दूर कर पाओगी

उन बांहों की मादकता सी, मादकता कैसे लाओगी

देखा न कभी पहले तुमको, कुछ अजनबियों सी लगती हो

दो पल का है परिचय तेरा, विश्वास करुं तुम कहती हो

वो छाया बनकर चलती है, दिल की धड़कन में बसती है

तुम दूर देश में रहती हो, फिर भी चलने को कहती हो

तुम कहती हो कि मोह ना कर, सुन्दर शरीर तेरा नश्वर

दुनिया की भूलभुलैया में, नैय्या तेरी गहरे सागर

ये छेद भरी तेरी नैय्या, उतरेगी पार न ये सागर 

आ बीच भँवर फँस जाएगी, पकड़ी है तूने कठिन डगर

पर उसे छोड़ कैसे चल दूं, वो अमर प्रेम कैसे छोड़ूं

तू माया भरी छलावा है, तुझसे खुद को कैसे जोड़ूं

दुनिया है मेरी चंद्रमुखी, उससे मुख मैं कैसे मोड़ूं

विश्वास टिकी सांसें चलती, विश्वास अमिट कैसे तोड़ू, 

वो अजब गजब दुनिया तेरी, ना उसमें मैं रह पाउंगा

अजनबियों के सागर में क्या, नैय्या अपनी खे पाउंगा

प्रेम बंध में बँधा हुआ मैं, बंधन तोड़ नहीं पाउंगा 

क्या इस दुनिया को छोड़ सखी, तेरी दुनिया में जाऊंगा

हट करो नहीं ले जाने की, इसमें क्या तेरी मजबूरी

दो तन पर एक जान हैं हम, ना मुझमें उसमें है दूरी

है कपट भरी जिद ये तेरी, मिट जाएगी दुनिया मेरी

मनुहार कर रहा मैं तेरा, पूरी ना होगी जिद तेरी 

करती हो व्यर्थ प्रयास सखे, ये काम नहीं कर पाउंगा

उस चंद्रमुखी को छोड़ सखे, तेरे संग न जा पाउंगा

कुछ समय अगर मुझको दे दो, ये वादा रहा निभाउंगा

रहने मैं तेरी दुनिया मे, उसके संग संग आऊंगा

अशोक श्रीवास्तव “कुमुद”

राजरुपपुर, इलाहाबाद