-डॉ. श्रीनाथ सहाय
राजद्रोह कानून पुनः चर्चा में है। आजादी के बाद से ही देश में इस कानून का बेजा इस्तेमाल हुआ है। लेकिन पिछले दो दशकों में इस कानून का जमकर दुरूपयोग हुआ है। कई मामले ऐसे प्रकाश में आये हैं, जहां साफ तौर पर ये देखा गया कि इस कानून का गलत प्रयोग किया जा रहा है। हाल ही में महाराष्ट्र की निर्दलीय सांसद एवं उनके विधायक पति पर जिस तरह राजद्रोह का मामला कायम हुआ है, उसके बाद से ये कानून चर्चा में बना हुआ है। बीते बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीद जगायी कि इस दिशा में कुछ सकारात्मक होगा। वास्तव में कई सरकारों ने भारत-पाक मैच में नारे लगाने, हनुमान चालीसा पाठ, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने तथा कार्टून बनाने जैसी अभिव्यक्ति पर अंकुश हेतु कानून का दुरुपयोग किया है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि जब तक केंद्र सरकार राजद्रोह कानून की समीक्षा करेगी, तब तक इसके तहत कोई नयी प्राथमिकी दर्ज न हो। वहीं जो मामले इस कानून के तहत चल रहे हैं उनमें भी अब कार्रवाई न हो। साथ ही जो लोग इस कानून के तहत जेल में हैं, वे अपनी जमानत के लिये अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। पुराने लंबित केस भी स्थगित रखे जाएंगे। सरकार नया मसविदा पेश करे। अदालत जुलाई के तीसरे सप्ताह में फिर सुनवाई करेगी।
16 मार्च 2021 को पहली बार संसद में गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने खुद राजद्रोह कानून की समीक्षा की जरूरत महसूस की। दरअसल, सरकार पर इस कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं। 1860 में बने राजद्रोह कानून को 1870 में भारतीय दंड संहिता के छठे अध्याय में 124 (ए) के तहत जगह मिली। इसमें प्रावधान है कि अगर कोई व्यक्ति बोलकर, लिखकर या चिन्ह्रों में घृणा, अवमानना, उत्तेजित, उकसावे या असंतोष भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह है।1891 में राजद्रोह का पहला मामला अखबारनवीस जोगेंद्र बोस पर दर्ज हुआ था। उसके बाद अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले बाल गंगाधर तिलक से लेकर अनेक सेनानियों ने मुकदमे झेले। अंग्रेजों ने इस कानून को आजादी की लड़ाई पर अंकुश का हथियार बना डाला। जानकर हैरानी होगी कि जिस ब्रिटिश हुकूमत ने इस कानून को बनाया था, उसी ब्रिटेन में 2010 में इस कानून को खत्म किया जा चुका है। दूसरी तरफ, यह हमारे यहां आज भी न केवल चलन में है बल्कि विवादों और सुर्खियों में भी।
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले सर्वोच्च अदालत की न्यायिक पीठ ने केंद्र सरकार से सवाल किए थे कि जिन पर यह धारा थोप दी गई और जो जेल में कैद हैं, उनका क्या होगा? क्या सरकार सुनिश्चित करेगी कि समीक्षा की प्रक्रिया पूरी होने तक किसी पर भी राजद्रोह कानून की धारा नहीं लगाई जाएगी? क्या केंद्र सरकार राज्यों को भी निर्देश देगी कि धारा 124-ए का फिलहाल इस्तेमाल न किया जाए?
बहरहाल तय कार्यक्रम के अनुसार, भारत सरकार ने सर्वोच्च अदालत में अपने हलफनामे के जरिए न्यायाधीशों के सवालों के जवाब दे दिए हैं। सरकार के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में पक्ष रखा था कि प्रधानमंत्री मोदी की ‘दृष्टि’ के संदर्भ में देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार किया जाएगा। सरकार धारा 124-ए के दुरुपयोगी प्रावधानों और सरकारों की प्रतिशोधात्मक मानसिकता की समीक्षा करेगी, लिहाजा सुप्रीम अदालत में फिलहाल सुनवाई स्थगित कर दी जाए।
भारत सरकार के अनुरोध पर न्यायिक पीठ ने समय तो दिया, लेकिन सवालों के साथ हलफनामा भी बुधवार 11.30 बजे तक मांग लिया। ब्रिटिश सरकार के इस उपनिवेशवादी कानून की वैधता और जरूरत पर कोई निर्णय लेने से पहले न्यायाधीश भारत सरकार का अद्यतन रुख जानना चाहते हैं। अंग्रेजों ने 1860 में यह कानून बनाया और 1870 में इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) से जोड़ा। भारत तब ब्रिटिश साम्राज्य का गुलाम था। उस कालखंड में ऐसे कानून की प्रासंगिकता समझ में आती है, क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के रणबांकुरों पर यह कानून चस्पा कर संपूर्ण क्रांति को ही कुचल देना चाहती थी।
1897 में और उसके बाद बाल गंगाधर तिलक पर 3 बार और 1922 में महात्मा गांधी पर यह ‘अमानवीय कानून’ थोपा गया। उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन आज हम एक स्वतंत्र गणतंत्र हैं और कोई भी नागरिक, अपने देश के खिलाफ, ‘देशद्रोह’ क्यों भड़काएगा? बेशक ऐसी ‘काली भेड़ें’ हरेक घर, समाज, देश में होती हैं, लेकिन उनके लिए दूसरी कानूनी धाराएं पर्याप्त हैं। दरअसल आजाद भारत में भी इस कानून का जमकर दुरुपयोग किया गया है।
राजनीतिक या पेशेवर विरोधियों का खूब उत्पीड़न किया गया है। हास्यास्पद है कि पत्रकारों, लेखकों, कॉर्टूनिस्टों, बौद्धिक आलोचकों और पूर्व राज्यपाल तथा मौजूदा सांसदों को ‘देशद्रोही’ करार दिया जाता रहा है, लेकिन ऐसे मामले अदालतों में टिक नहीं पाते, क्योंकि देशद्रोह के आरोपित आधार बहुत कमजोर होते हैं। 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद राजद्रोह के दर्ज मामलों में करीब 65 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। 2010 से 2022 के बीच इस धारा का इस्तेमाल कर 13,306 गिरफ्तारियां की गई हैं। 2019 में इसके तहत सजा की औसत दर मात्र 3 फीसदी रही है।
इस कानून के लागू होने के मद्देनजर जो आधार तय किए गए थे, वे ब्रिटिश काल में भी लगभग वही थे। हमारा संविधान बोलने, लिखने, कहने, आलोचना करने का अधिकार देता है, तो सरकारें उन्हें राजद्रोह करार क्यों देती रही हैं? सर्वोच्च अदालत के सामने कई याचिकाएं हैं। उनमें सम्मानित नागरिक भी हैं और पूर्व सैन्य अधिकारी भी हैं। वे औपनिवेशिक कानून हटाने के पक्षधर हैं, क्योंकि ब्रिटेन ने भी 2009 में राजद्रोह का कानून समाप्त कर दिया था। अमरीका में भी ऐसा कानून नहीं है। संभव है कि आतंकवाद सरीखी गतिविधियों के मद्देनजर संप्रभु सरकारें यह कानून चाहती हैं। फिर भी समीक्षा की शुरुआत हुई है, तो सर्वोच्च अदालत को अब निर्णायक निष्कर्ष देना चाहिए।
संवैधानिक वैधता तो 1962 के चर्चित ‘केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार’ वाले मामले में भी तय कर दी गई थी। वह निर्णय 5 न्यायाधीशों की पीठ का था। अब यह भी तय किया जाना है कि क्या उससे बड़ी पीठ को इस मामले की समीक्षा सौंपी जाए? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2016 से 2019 के बीच इस कानून के तहत दर्ज मामलों में 160 फीसदी की वृद्धि हुई मगर दोष सिद्धि महज तीन फीसदी ही थी। सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब गिरफ्तारियां मामले को गंभीर बताते हुए इतनी बड़ी संख्या में हुई तो सजा इतने कम लोगों को क्यों मिल पाई? जाहिर है मामलों को राजनीतिक दुराग्रह के चलते तूल दिया गया। नागरिक स्वतंत्रता के मामले में अंतर्राष्ट्रीय जगत में इसका अच्छा संदेश नहीं जाता।
दरअसल, इस कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर लोगों का मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत राजनीतिक संवाद में आलोचना होना आम बात है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। हर नागरिक की अभिव्यक्ति व गरिमा की भी रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे में औपनिवेशिक शासन में नागरिकों को दंडित करने वाले कानून का आजादी के सात दशक बाद भी अस्तित्व में रहना विडंबना ही है। आखिर जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो स्वतंत्रता सेनानियों को धमकाने के लिये इस्तेमाल होने वाले कानून का अस्तित्व में रहना क्यों जरूरी है। बहरहाल, केंद्र सरकार देशद्रोह कानून की समीक्षा के लिये तो तैयार हुई, लेकिन कहना कठिन है कि यह कब तक होगी। जब मोदी सरकार करीब 1500 पुराने कानूनों को खारिज कर सकती है, तो वह राजद्रोह कानून को क्यों रखना चाहती है? यह सवाल प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एन.वी.रमना ने उठाया था। कहना कठिन है कि केंद्र सरकार इस कानून के कुछ प्रावधानों की समीक्षा करेगी या इसे समाप्त करेगी। बहरहाल, इस कवायद के कुछ सकारात्मक परिणाम जरूर सामने आएंगे।
-लेखक राज्य मुख्यालय लखनऊ, उत्तर प्रदेश में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।
——————————–