वे ख़त और वे यादें जो सील गई हैं
बदलते मौसम की हवाओं से
उन्हें मैंने आज
धूप में रखा है।
कुछ भीग चुकी हैं यादें
कुछ ख़त गलने की हद पर हैं,
और वह संदूक
जहाँ मैंने इनको सहेजा था
उस पर भी पपडियां जम गई हैं
वक्त की हवाओं के नमक के कारण।
उसे भी धूप में ले आई हूं
और हटाने की कोशिश कर रही हूं
उन पपड़ियों के साथ जमे
अतीत के काले सायों को।
मैं छांट कर अलग करती जा रही हूं
यादों के सुनहरे – रुपहले पन्ने
और खतों की इबारतों को सहेजने के लिए
आहिस्ता से उनके चिपके पन्ने खोल कर
रखती जा रही हूं।
सोचते हुए कि पहले यह क्यों न कर सकी
क्यों सील जाने दिया इन हर्फ़ों को
पर देर आयद दुरुस्त आयद,
जो बाकी हैं निशाँ
कम से कम उनको तो अब सहेज लूं।
ताजगी भरी हवा के साथ
अपनेपन की ऊष्मा भी सोखने दूँ इनको
क्योंकि अकेलेपन की ठंडक में
यहीं यादें ही गर्माहट देकर
साथी बनकर सहलायेंगी
भर कर अपने आलिंगन में
खुशियों के कच्चे आंगन में
ले जाएंगी।
बनावट से परे इन यादों को
खतों को
सीलने देने की भूल न करना
बहुत जरूरी है
समय समय पर इनको भी
हवा और धूप दिखाते रहना।
मेघा राठी
ई -2 ,पंजाबी बाग, भोपाल, म प्र
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