“शबरी”

शबरी नहीं हूँ मैं

क्योंकि

राम भी 

तुम नही हो मेरे 

विह्वल,व्यथित मन को

शान्त कर

लहलहा उठी

भावना मेरी उस तरह

जैसे

 देख राम को

भूली सब शबरी

अपना आपा

टकटकी लगा देखती रही बस

कुछ यूं अपने राम को

 सोचा तक नहीं ये

कि

आराध्या अपने देव को

खिला रही अपना

जुठा

वो भी तो मुस्कुराते

खाते रहे बैर

शबरी के जुठे

और

तप्त होती रही

आत्मा भी राम की

क्या

ऐसे मेरे राम तुम 

बन पाओगे?

भावना को

समझ मेरी

क्या,

मेरे भी जुठे बैर

को अपनाओगे

अपनाओगे।।

डॉ. संध्या पुरोहित

इंदौर