क्षितिज
जिसकी छोर पर
सूरज की लालिमा
वसुंधरा की कालिमा
एक-दूसरे से जैसे
मिल जाने को हो आकुल
क्षितिज
जिसके पार
अद्भुत अंबर
रत्नगर्भा धरती
के मिलन का
हो जैसे आभास
क्षितिज
जिसकी आभासी रेखा पर
दिवा की विदाई
निशा का आगमन
संग मिलन का इंतजार
जैसे उल्लासित हो सांध्य बेला
क्षितिज
जिसके पार
जीवन और मौत के अर्थ की तलाश
कालचक्र का घर्घर नाद
वक्त के बेरहम प्रतिघात
के साथ जैसे होगी पूरी
क्षितिज
जिसकी छोर पर
बैठा है एक बूढ़ा आदमी
इस उम्मीद के साथ
कि आयेगी वह सांझ
जब मिट जायेगा सुख-दुख का फर्क
– संतोष सारंग