ऐसा क्यों होता है ?

पुरूष तुम्हें बस एक

औरत का विश्वास

जीतना हैं

फिर सब कुछ आसान

हो चलेगा

वो खुद को तुम पे न्यौछावर

कर देगी

अपना तन अपना मन

अपनी आत्मा अपनी

आज़ादी यहाँ तक की

अपना नाम भी….

फिर नौच लेना तुम उसे

प्यार के नाम पे देह को,

अभिमान के नाम पे उसके

स्वाभिमान को,

बंदिशों के नाम पे उसके

आज़ाद पंख को….

अपनापन के नाम पे उसके

रिश्तों को…

वो पढ़ लेती हैं तुम्हारे

मायूस चेहरे को

उसके पीछे पलते दर्द को

तुम्हारी खामोशियों को,

हर घावों पे मरहम लगाती हैं वह

अपनी भावनाओं का,

संवेदनाओं का…

पर तुम नोंच लेते हो उसके

नरम एहसासों को ….

ये सब करने की हिम्मत

कहाँ से आती हैं?

कैसे किसी की भावनाओं

को कुचल देते हैं?

कैसे किसी के विश्वास को

रौंद देते हैं ये मर्द?

प्रेम और नफ़रत के बीच होती

हैं जो कड़ी (विश्वास),

कैसे उसे ख़त्म कर

देते हैं ये मर्द?

ऐसा क्यों होता है

हर बार छली ही जाती है 

औरत!!

● रीना अग्रवाल 

सोहेला (उड़ीसा)