सुरसा ~ सा मुंह खोल खड़ी है,
निगलेगी वह, विकट घड़ी है,
सांसें टूट रही साहस की,
कठिन कुचाली राह अड़ी है।
सागर की उत्ताल लहर है,
मार्ग न दिखता, कुटिल पहर है,
कुंठा से गलबहियां डाले,
गांव ~ गांव और शहर~ शहर है।
ऐसे में हनुमत सा पौरुष
कोई जामवंत बन भर दे,
थके~थके जो तट पर बैठे,
उनमें जीवन का रस भर दे।
उठो, गरज कर मुट्ठी बांधो,
अपनी ऊर्जा को आराधो,
घनीभूत संकल्प संजोकर,
अरि पर शस्त्र भयंकर साधो।
उठो कि याद करो निज बल को,
उठो कि देखो वैरी दल को,
कैसे कूट जाल रचते हैं,
पहचानो अब उनके छल को।
धैर्यवान बन, युक्ति निकालो,
किंचित कभी न संशय पालो,
सच है जली पाप की लंका,
यही घड़ी है चाप चढ़ा लो।
अशोक मिश्र, प्रवक्ता अंग्रेजी
कवि और गीतकार, जौनपुर
उत्तर प्रदेश।