सुप्रीम कोर्ट की टिप्‍पणी: हिजाब से नहीं की जा सकती सिखों की ‘पगड़ी और कृपाण’ की तुलना

नई दिल्ली । हिजाब मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देनी वाली याचिकाओं पर 8 सितंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। शीर्ष अदालत ने अपनी एक टिप्पणी में कहा कि सिखों की पगड़ी और कृपाण की तुलना हिजाब से नहीं की जा सकती। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने कहा 5 जजों की संविधान पीठ पहले ही यह तय कर चुकी है कि पगड़ी और कृपाण सिख धर्म का अनिवार्य हिस्सा हैं, ये दोनों चीजें सिखों की पहचान से जुड़ी हुई हैं।
जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा, सिख धर्म के 500 वर्षों के इतिहास और भारतीय संविधान के हिसाब से भी यह सर्वविदित तथ्य है कि सिखों के लिए पांच ककार जरूरी हैं। ऐसे में शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने की तुलना, सिखों के धार्मिक चिह्नों से करना ठीक नहीं है। हिजाब मामले पर सुनवाई 12 सितंबर को भी जारी रहेगी। उस दिन याचिकाकर्ताओं की ओर से सलमान खुर्शीद दलीलें रखेंगे।
जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने यह टिप्पणी याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील निजाम पाशा की दलीलों को सुनने के बाद की। शीर्ष अदालत में कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं का पक्ष रख रहे वकील निजाम पाशा ने दलील दी थी कि सिख धर्म के पांच ककारों की तरह इस्लाम के भी 5 बुनियादी स्तंभ हैं, जिनमें हज, नमाज, रोजा, जकात और तौहीद शामिल हैं। उन्होंने कहा कि हिजाब भी इस्लाम के इन 5 स्तभों का एक हिस्सा रहा है। पाशा ने कहा कि यदि किसी सिख को पगड़ी पहनकर स्कूल नहीं आने दिया जाता, तो यह संविधान का उल्लंघन है।
उन्होंने कहा मैं लड़कों के स्कूल में गया, मेरी कक्षा में कई सिख लड़के थे, जिन्होंने एक ही रंग की पगड़ी पहनी थी। यह स्थापित किया गया है कि इससे अनुशासन का उल्लंघन नहीं होगा। निजाम पाशा ने फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे मुल्‍कों का उदाहरण देने की कोशिश की। उनकी इन दलीलों पर जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि हम फ्रांस या ऑस्ट्रिया के मुताबिक नहीं बनना चाहते। हम भारतीय हैं और भारत में रहना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा, आप सिखों से तुलना मत कीजिए। सिख धर्म की प्रथाएं देश की संस्कृति में अच्छी तरह से निहित हैं। इसके जवाब में पाशा ने दलील दी कि हमारा भी यही कहना है कि 1400 सालों से हिजाब भी इस्लामिक परम्परा का हिस्सा रहा है। ऐसे में कर्नाटक हाई कोर्ट का निष्कर्ष गलत है।
उन्होंने कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले के कुछ हिस्सों का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि हिजाब एक सांस्कृतिक प्रथा है। इसे लेकर पाशा ने कहा, भले ही हिजाब एक सांस्कृतिक प्रथा है, लेकिन इसे उसी तरह संरक्षित किया गया है, जैसे सिखों के लिए पगड़ी पहनना संरक्षित किया गया है। जस्टिस हेमंत गुप्ता ने याचिकाकर्ताओं के वकील निजाम पाशा के इस तर्क को अप्रासंगिक बताते हुए खारिज कर दिया। निजाम पाशा से पहले याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील देवदत्त कामत पेश हुए और शीर्ष अदालत के सामने अपनी दलीलें रखीं। कामत ने कहा कि मूल अधिकारों पर वाजिब प्रतिबंध हो सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है, जब ये कानून।व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के विरुद्ध हो। यहां लड़कियों का हिजाब पहनना न तो कानून।व्यवस्था के खिलाफ है, न ही नैतिकता और स्वास्थ्य के। ऐसे में संविधान के मुताबिक सरकार का हिजाब पर प्रतिबंध का आदेश वाजिब नहीं है।
उन्होंने कहा कि हर धार्मिक परंपरा जरूरी नहीं कि किसी धर्म का अनिवार्य हिस्सा ही हो, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि सरकार उस पर प्रतिबंध लगा दे। सरकार को यह अधिकार सिर्फ तभी हासिल है, जब वह परंपपरा कानून व्यवस्था या नैतिकता के खिलाफ हो। सुनवाई के दौरान देवदत्त कामत ने दलील दी कि मैं जनेऊ पहनता हूं, सीनियर वकील के। परासरन भी पहनते हैं, लेकिन क्या यह किसी भी तरह से कोर्ट के अनुशासन का उल्लंघन है? देवदत्त कामत की दलीलों को सुनने के बाद शीर्ष अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा, आप कोर्ट में पहनी जाने वाली ड्रेस की तुलना स्कूल ड्रेस से नहीं कर सकते। वकील राजीव धवन ने पगड़ी का हवाला दिया था, लेकिन पगड़ी भी जरूरी नहीं कि धार्मिक पोशाक ही हो। मौसम की वजह से राजस्थान में भी लोग अक्सर पगड़ी पहनते हैं।
जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कहा कि सड़क पर हिजाब पहनने से भले ही किसी को दिक्कत न हो, लेकिन सवाल स्कूल के अंदर हिजाब पहनने को लेकर है। सवाल यह है कि स्कूल प्रशासन किस तरह की व्यवस्था बनाए रखना चाहता है। देवदत्त कामत ने दलील दी कि स्कूल व्यवस्था बनाए रखने का हवाला, इस आधार पर नहीं दे सकते कि कुछ लोगों को हिजाब से दिक्कत हो रही है और वे नारेबाजी कर रहे हैं। सरकार के आदेश में यही बात कही गई है। लेकिन हिजाब को प्रतिबंधित करने का यह कोई उपयुक्त आधार नहीं है। ये तो स्कूलों की जिम्मेदारी है कि वे ऐसा माहौल तैयार करें, जहां मैं अपने मूल अधिकारों का स्वतंत्र होकर इस्तेमाल कर सकूं।