संजीव-नी।

दरख्तो से पुराने घरोंदे वो उठाने लगे

सूखे सरोवर परिंदे छोड़कर जाने लगे हैl

नहीं अंदेशा है उन्हें अपनी उडान की दूरी का,

कंधे पर रख जीन्दगी का क़र्ज़ चुकाने लगें हैंl

दरख्तों के ठुठ होने का अफ़सोस नही है,

नन्हे चूज़ों के नये घोसले बनाने चले हैl

कितने दरख़्त,सरोवर सूख गए संजीव

हौसलों से परिंदे नई ऊंचाई नापने चले है।

चूजे भी पुराने दरख्तों के छोटे तिनके,उठाकर,

आदम को दुनिया का आकाश दिखाने चले है।

भूल जाओ पुराने लम्हों ,पलों ,को चलो साथ साथ,

अब परिन्दें भी दुनिया को  नई रौशनी दिखाने चले हैं।

        संजीव ठाकुर, रायपुर छत्तीसगढ़, 9009 415 415