बोलो जुबान केसरी

आदमी जरूरतों में रंग बदलने वाला गिरगिट है। जैसे शिकारी शिकार पर निकलता है, चुनावकाल में नेता वोटर की तलाश में निकलता है, पुलिसवाला वसूली की तलाश में निकलता है, मैं भी कुछ इसी तरह अपनी फूटी किस्मत को सुधारने के लिए रोजगार केंद्र पहुँचा। रोजगार केंद्र की खासियत यह थी कि वहाँ काम करने वाले कर्मचारी भी अनुबंध पर थे। वे भी रोजगार केंद्र में नियमित रोजगार के लिए आवेदन कर चुके थे। इसे ही कहते हैं दवा देने वाला डॉक्टर भी दूसरे डॉक्टर का मुँह ताक रहा है। अनुबंध कर्मचारियों पर अनु से बंध मुक्त हो जाने का खतरा सदा मंडराता रहता है। इसलिए वे नियमित रोजगार तक इस बंध को ही अपना बंधन मानकर अपना अंतःक्रंदन करते रहते हैं।

मैं अपना आवेदन लेकर जिस अनुबंध कर्मचारी के पास पहुँचा उसके सिर के बाल झड़ चुके थे। मालूम करने पर पता चला कि जब वह यह कार्यालय में भर्ती हुआ था तब उसके बाल शाहरूख खान की तरह थे। अब अनुपम खेर बने अपनी खैर मना रहा है। किंतु मुझे उसके कार्य करने की शैली बहुत अच्छी लगी। जब मैंने उससे पूछा कि आवेदन करने से नौकरी मिलती है कि नहीं तो उस पर उसने टाइटानिक फिल्म में जहाज के डूबते समय मौत के भय से पादरियों द्वारा बाइबिल बाँचते हुए अन्य यात्रियों में ढांढस बांधने का जो दृश्य था, वही दृश्य मेरी आँखों के सामने उभर आया। वह अनुबंध कर्मचारी जानता है कि ऐसे लाखों आवेदन यहाँ पड़े हैं और नौकरी का वजूद ठीक उसी तरह है जिस तरह भयंकर रेगिस्तान में ओस की बूँद।

इस कार्यालय की स्थापना रोजगार देने निमित्त हुई थी, किंतु किसी को रोजगार मिला हो ऐसा कभी देखा, सुना, पढ़ा या लिखा नहीं गया। हाँ इतना जरूर है कि इस कार्यालय के बहाने पान, बीड़ी, सिगरेट और गुटखे वाले का खोखा धड़ल्ले से चल रहा था। ये दुकानें दर्शनवाद पर काम करती हैं। सब्जी की दुकानें जीवन को स्वस्थ बनाने का काम करती हैं, ऐसे स्वस्थ बेरोजगार ज्यादा जिए इससे तो अच्छा पान, बीड़ी, सिगरेट और गुटखा खाकर शार्टकट जिंदगी के रास्ते हुए मौत को गले लगाना। रोज-रोज सड़-सड़कर मरने से अच्छा है, जल्दी से इस जिंदगी को राम-राम कहो।

रोजगार कार्यालय में भीड़ बहुत थी। मक्खियाँ कम थी। सारे उदास बैठे थे। मक्खियाँ नहीं थीं फिर भी उन्हें मारे जा रहे थे। हम आभासित मक्खियों को मार रहे थे। आजकल हमारे जीवन में आभासित दुनिया बहुत महत्त्वपूर्ण हो गयी है। जीवन में मित्रों और सम्बन्धियों के पास मिलने का समय नहीं है और हर बार न मिलने के बहाने ढूंढ़ने पड़ते हैं। पर फेसबुक या वाट्सऐप पर एक ढूँढ़ो तो हजार मित्र मिलते हैं। अनेक बार तो मित्रो को अनफ्रेंड करना पड़ता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सन्तान पति/पत्नी, एक-दूसरे से जितना आभासित दुनिया में मिलते हैं उतने भासित दुनिया में नहीं ।

    इन सबके बीच एक अनुबंध कर्मचारी बहुत प्रसन्न दिख रहा था। किसी तरह पता लगाने पर पता चला कि बहुत जल्द उसे बीड़ी-सिगरेट का खोखा मिलने वाला है। इसके लिए उसने भारी भरकम रिश्वत भी दी है। अब अनुबंध से मुक्त होने वाला था और पूरी तरह से रोजगार के बंधन में बंधने वाला था। उसे देखकर हम भी उसी की तरह कामना करने लगे। करें भी क्यों न, इस देश में लोग जुबान केसरी जो बोलने लगे हैं।डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

आदमी जरूरतों में रंग बदलने वाला गिरगिट है। जैसे शिकारी शिकार पर निकलता है, चुनावकाल में नेता वोटर की तलाश में निकलता है, पुलिसवाला वसूली की तलाश में निकलता है, मैं भी कुछ इसी तरह अपनी फूटी किस्मत को सुधारने के लिए रोजगार केंद्र पहुँचा। रोजगार केंद्र की खासियत यह थी कि वहाँ काम करने वाले कर्मचारी भी अनुबंध पर थे। वे भी रोजगार केंद्र में नियमित रोजगार के लिए आवेदन कर चुके थे। इसे ही कहते हैं दवा देने वाला डॉक्टर भी दूसरे डॉक्टर का मुँह ताक रहा है। अनुबंध कर्मचारियों पर अनु से बंध मुक्त हो जाने का खतरा सदा मंडराता रहता है। इसलिए वे नियमित रोजगार तक इस बंध को ही अपना बंधन मानकर अपना अंतःक्रंदन करते रहते हैं।

मैं अपना आवेदन लेकर जिस अनुबंध कर्मचारी के पास पहुँचा उसके सिर के बाल झड़ चुके थे। मालूम करने पर पता चला कि जब वह यह कार्यालय में भर्ती हुआ था तब उसके बाल शाहरूख खान की तरह थे। अब अनुपम खेर बने अपनी खैर मना रहा है। किंतु मुझे उसके कार्य करने की शैली बहुत अच्छी लगी। जब मैंने उससे पूछा कि आवेदन करने से नौकरी मिलती है कि नहीं तो उस पर उसने टाइटानिक फिल्म में जहाज के डूबते समय मौत के भय से पादरियों द्वारा बाइबिल बाँचते हुए अन्य यात्रियों में ढांढस बांधने का जो दृश्य था, वही दृश्य मेरी आँखों के सामने उभर आया। वह अनुबंध कर्मचारी जानता है कि ऐसे लाखों आवेदन यहाँ पड़े हैं और नौकरी का वजूद ठीक उसी तरह है जिस तरह भयंकर रेगिस्तान में ओस की बूँद।

इस कार्यालय की स्थापना रोजगार देने निमित्त हुई थी, किंतु किसी को रोजगार मिला हो ऐसा कभी देखा, सुना, पढ़ा या लिखा नहीं गया। हाँ इतना जरूर है कि इस कार्यालय के बहाने पान, बीड़ी, सिगरेट और गुटखे वाले का खोखा धड़ल्ले से चल रहा था। ये दुकानें दर्शनवाद पर काम करती हैं। सब्जी की दुकानें जीवन को स्वस्थ बनाने का काम करती हैं, ऐसे स्वस्थ बेरोजगार ज्यादा जिए इससे तो अच्छा पान, बीड़ी, सिगरेट और गुटखा खाकर शार्टकट जिंदगी के रास्ते हुए मौत को गले लगाना। रोज-रोज सड़-सड़कर मरने से अच्छा है, जल्दी से इस जिंदगी को राम-राम कहो।

रोजगार कार्यालय में भीड़ बहुत थी। मक्खियाँ कम थी। सारे उदास बैठे थे। मक्खियाँ नहीं थीं फिर भी उन्हें मारे जा रहे थे। हम आभासित मक्खियों को मार रहे थे। आजकल हमारे जीवन में आभासित दुनिया बहुत महत्त्वपूर्ण हो गयी है। जीवन में मित्रों और सम्बन्धियों के पास मिलने का समय नहीं है और हर बार न मिलने के बहाने ढूंढ़ने पड़ते हैं। पर फेसबुक या वाट्सऐप पर एक ढूँढ़ो तो हजार मित्र मिलते हैं। अनेक बार तो मित्रो को अनफ्रेंड करना पड़ता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सन्तान पति/पत्नी, एक-दूसरे से जितना आभासित दुनिया में मिलते हैं उतने भासित दुनिया में नहीं ।

    इन सबके बीच एक अनुबंध कर्मचारी बहुत प्रसन्न दिख रहा था। किसी तरह पता लगाने पर पता चला कि बहुत जल्द उसे बीड़ी-सिगरेट का खोखा मिलने वाला है। इसके लिए उसने भारी भरकम रिश्वत भी दी है। अब अनुबंध से मुक्त होने वाला था और पूरी तरह से रोजगार के बंधन में बंधने वाला था। उसे देखकर हम भी उसी की तरह कामना करने लगे। करें भी क्यों न, इस देश में लोग जुबान केसरी जो बोलने लगे हैं।